Sunday, March 24, 2019

ज़िंदगी के खेल

कब चुपके से आकर
खड़ी हो जाती है ज़िंदगी
 मौत के किनारे पर
तब इंसान बेबस
 होकर रह जाता है
जाने वाला कब चुपचाप से
अंतिम सफर पर चल देता है
मौत के किनारे पर आकर
किसी को पता भी नहीं चलता है
यह ऐसा पड़ाव है ज़िंदगी का
जहाँ किसी अपने का साथ
सदा के लिए छूट जाता है
बस यादें जिंदा रह जाती हैं
ज़िंदगी फिर चल देती है
बीते पलों की गठरी खोल
यादों की परछाइयों के साथ
मुश्किल होता है बड़ा 
यह वक्त़ जीवन का
जब ज़िंदगी से रिश्तों की कड़ी
एक-एक कर बिखरने लगती है
यहीं इंसान मजबूर हो जाता है
चाहकर भी कुछ नहीं कर पाता
अजब खेल है ज़िंदगी का भी
इंसान जब तक ज़िंदा है घर में है
दम तोड़ते ही शरीर बन जाता है
अजब ज़िंदगी तेरे गजब खेल
कहीं सुख कहीं दुःख
कहीं जीवन तो कहीं मौत से भेंट
जीवन नैया भवसागर में डोलती रहती है
किनारे को रहती है तलाशती 
किस्मत किस किनारे नैया लगादे
यह किसी को भी न खबर रहती
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

14 comments:

  1. भावपूर्ण अभिव्यक्ति

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  2. आपकी लिखी रचना आज ," पाँच लिंकों का आनंद में " बुधवार 27 मार्च 2019 को साझा की गई है..
    http://halchalwith5links.blogspot.in/
    पर आप भी आइएगा..धन्यवाद।

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    1. सहृदय आभार पम्मी जी

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  3. कहीं सुख कहीं दुःख
    कहीं जीवन तो कहीं मौत से भेंट
    यथार्थ
    बेहतरीन सृजन आदरणीया

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  4. Replies
    1. बहुत बहुत आभार आदरणीय

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  5. बेहतरीन सखी 👌
    सादर

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  6. बस यादें जिंदा रह जाती हैं
    ज़िंदगी फिर चल देती है
    बीते पलों की गठरी खोल
    यादों की परछाइयों के साथ
    बहुत सुन्दर ...भावपूर्ण रचना...।

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