Sunday, August 4, 2019

पारो भाग (2)

 
इधर हरिया और सुखिया दोनों बच्चों को लेकर सपने संजोए बैठे हुए थे। उधर शिवा के मन में भी पारो को लेकर अहसास जाग रहे थे।
शिवा पारो को बुलाता रहा जाता है,वो उसे चिढ़ाकर हँसती हुई सुखिया के पास चली जाती है।
शिवा पारो को जाता देख मुस्कुरा उठता है,"पगली हमेशा बच्चों जैसी हरकतें ही करती रहेगी"और वहीं रुककर उसका इंतज़ार करने लगता है।
थोड़ी देर में पारो घर जाने के लिए लौटकर आती है तो शिवा को देखते ही,तू यहीं खड़ा है तबसे..?
हां..! तुझसे बात करनी है.... पर मुझे नहीं करनी घर पर माँ इंतज़ार कर रही है... मुझे पानी भरने जाना है, तेरी तरह काम से जी चुराकर किसी का पीछा नहीं करती।
अच्छा जी... बहुत बातें आने लगी तुझे..पता है तेरा काम अभी घर जाकर रेडियो चालू करके गाना सुनेगी और बेसुरी आवाज़ में गाना गाएगी।
मैं बेसुरी..!! तूने मुझे बेसुरी कहा...हाँ कहा..शिवा को पारो को छेड़ने में बहुत मज़ा आ रहा था।
रुक जरा..! पारो ने पास पड़ी लकड़ी उठाई और शिवा को मारने दौड़ी,शिवा आगे-आगे,पारो पीछे-पीछे शिवा अपने खलिहान के पीछे जाकर खड़ा हो गया।
बस थक गया..? रुक बताती हूँ कौन बेसुरा है... जैसे ही शिवा को मारने के लिए हाथ उठाया,शिवा ने हाथ पकड़कर अपनी ओर खींच लिया।
पारो को इसकी आशा नहीं थी इसलिए वो शिवा के खींचने से उसके ऊपर आ गिरी। शिवा की नजरों से नजर मिलते ही पारो को एक अजीब-सा अहसास हुआ,वो झटके से अलग होकर चुपचाप खड़ी हो गई।
शिवा भी चुपचाप खड़ा होकर पारो के चेहरे को देखने लगा फिर सकपका कर बोला,वो मैं.. मुझे.. मुझे तुझे कुछ दिखाना था।
क्या..? पारो के चेहरे से साफ मालूम पड़ रहा था कि अचानक शिवा के सीने से लग जाने की वजह से शर्म से लाल हो रही थी।
"आ मेरे साथ"शिवा उसे लेकर उस पेड़ के नीचे आता है जहाँ खेलकूद के बड़े हुए थे।"आँखें बंद कर"क्यों..?"सवाल मत कर"पारो आँख बंद कर लेती है।
तभी उसे कान के पास चूड़ियों के खनकने की आवाज़ सुनाई देती है।खोलूँ आँखें..?"नहीं रुक जरा"शिवा उसे चूड़ियाँ पहनाने लगता है।
तू चूड़ी लाया मेरे लिए..? मुझे देखनी हैं.. पारो बच्चों के जैसी जिद्द करने लगी। रुक पहना लेने दे...हाँ अब आँखें खोलकर बता कैसी हैं।
पारो आँखें खोलकर देखती है शिवा ने सही में बहुत ही सुंदर चूड़ियाँ पहनाई थी। बिल्कुल वैसी ही चूड़ियाँ थी जो सावन के मेले में चूड़ी बेचने वाले के पास देखकर वो माँ से लेने की जिद्द कर रही थी।
अरे वाह इत्ती सुंदर चूड़ियाँ...!तू मेरे लिए लाया..? नहीं मेरी माई के लिए बस तुझे पहनाकर देख रहा था, शिवा ने पारो को छेड़ते हुए कहा।
पारो यह सुनकर उदास होने लगती है तो शिवा हँस देता है। अरे पगली तेरे लिए ही लाया हूँ।ओह मेरे शिवा.. पारो शिवा के गले लग गई।
शिवा भी उसके भोले चेहरे को देखता रह गया, दिन पर दिन रूप निखर रहा था पारो का काजल लगी बड़ी-बड़ी आँखें कोई देखे तो दिवाना हो जाए।
अचानक पारो को अपनी गलती का अहसास हुआ तो शिवा से दूर होकर शरमाने लगी।
मैं घर जा रही हूँ..?हाँ तो जा ना किसने रोका तेरा ही मन नहीं है मुझसे दूर जाने का। धत् पागल..कहकर पारो भागी फिर रुक गई,माई चूड़ियों के बारे में पूछेगी तो क्या बोलूंगी शिवा.. पारो ने शिवा से पूछा।
अरे इसमें क्या चोरी है..बोल देना मैंने दिलाईं हैं... पहले भी तो कई बार लाया हूँ..माई कहाँ कुछ बोलती है।
पहले की बात और थी शिवा हम बच्चे थे और अब..हाँ बोल अब क्या..बोल न पारो अब क्या बदल गया हम दोनों के बीच? कुछ नहीं तू पागल का पागल ही रहेगा पारो भाग जाती है।
शिवा मंद-मंद मुस्कुराते हुए पारो को जाता देखता रह गया।
शिवा और पारो का प्रेम धीरे-धीरे परवान चढ़ रहा था, उनके इस मेल-मिलाप पर कोई पैनी नजर गढ़ाए था।
वो था गाँव के जमींदार का बेटा दुष्यंत जिसे पारो की सुंदरता अपना दिवाना बना रही थी।
क्रमशः
***अनुराधा चौहान***

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