यह कहानी है भारतीय सेना के वीर शहीद कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय की।
मनोज कुमार पाण्डेय कारगिल युद्ध के महान योद्धा थे।उनके युद्धकौशल और अदम्य साहस और उनकी शहादत को न देश भूला है न कभी भूलेगा।
मनोज कुमार पाण्डेय का जन्म 25 जून 1975 में उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले के रूधा गाँव में हुआ था।उनके पिताजी का नाम गोपीचन्द्र पाण्डेय तथा उनकी माता का नाम मोहिनी था।
मनोज की शिक्षा लखनऊ के सैनिक स्कूल में हुई थी इसी कारण उनमें अनुशासन के भाव तथा देश प्रेम की भावना कूट-कूटकर भरी हुई थी।
मनोज पाण्डेय बचपन से ही बहुत ही मेधावी छात्र थे। मनोज ने अखिल भारतीय स्तर की छात्रवृत्ति परीक्षा कड़ी मेहनत से पास कर सैनिक स्कूल में दाखिला लिया।स्कूल हो या कॉलेज हर जगह खेल-कूद में हमेशा आगे रहते थे।
मनोज जब छोटे थे तो उनकी माँ उन्हें वीर योद्धाओं की कहानियां सुनाया करती थीं। जिसे सुनकर उनमें भी देश के प्रति कुछ कर गुजरने का जुनून बढ़ता गया।
मनोज की माँ ही हमेशा उनकी प्रेरणाश्रोत रही थी। वह हमेशा उन्हें कुछ ऐसा काम करने के लिए प्रेरित करती थी कि लोग उन्हें याद करें तो सम्मान के साथ याद करें।
मनोज की माँ हमेशा ही उनका हौसला बढ़ाया करती थीं। उनकी दिली इच्छा थी,उनका बेटा जीवन के किसी भी मोड़ पर विकट से विकट चुनौतियों का सामना करने में घबराये नहीं और देश का नाम रोशन करे।
बारहवीं पास करने के बाद उनका सपना डॉक्टर या इंजीनियर बनना नहीं था।उनका सपना तो बस आर्मी जॉइन करना था।वह आईआईटी और एनडीए दोनों में अच्छे नंबरों से पास हुए।
मनोज कुमार को प्रतियोगी परीक्षा में सफल होने के बाद पुणे के पास खड़कवासला स्थित राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में दाखिला मिल गया।
वहाँ प्रशिक्षण पूरा करने के पश्चात सेवा चयन बोर्ड ने उनका इंटरव्यू लेने के दौरान उनसे पूछा था,”आप सेना में क्यों शामिल होना चाहते हैं? मनोज ने जवाब दिया,"मैं परमवीर चक्र जीतना चाहता हूँ।"
मनोज कुमार पाण्डेय को न सिर्फ सेना में भर्ती किया गया बल्कि 1/11 गोरखा रायफल में भी कमिशन दिया गया था।सन् 1997 में मनोज कुमार पाण्डेय 1/ 11 गोरखा रायफल्स रेजिमेंट की पहली वाहनी के अधिकारी बने।
मनोज ने जो सपना देखा था वो सच हो गया था। वह बतौर एक कमीशंड ऑफिसर ग्यारहवां गोरखा राइफल्स की पहली बटालियन में पहुँच गए।
उनकी तैनाती कश्मीर घाटी में हुई। ठीक अगले ही दिन उन्होंने अपने एक सीनियर सेकेंड लेफ्टिनेंट पी. एन. दत्ता के साथ एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी को पूरा किया।
लेफ्टिनेंट पी.एन दत्ता एक आतंकवाडी गुट से मुठभेड़ में शहीद हो गए,और उन्हें अशोक चक्र प्राप्त हुआ जो भारत में युद्ध के अतिरिक्त बहादुरी भरे कारनामे के लिए दिया जाने वाला सबसे बड़ा इनाम है।
एक बार मनोज कुमार पाण्डेय को एक टुकड़ी लेकर गश्त के लिए भेजा गया था।और उन्हें वापस लौटने में बहुत देर हो गई थी। इस बात को लेकर सब बहुत चिंतित होने लगे थे।
दो दिन के बाद जब वह इस कार्यक्रम से वापस आए तो उनके कमांडिंग ऑफिसर ने उनसे इस देरी का कारण पूछा, तो उन्होंने जवाब दिया,"हमें हमारी गश्त में उग्रवादी मिले ही नहीं तो हम तब-तक आगे चलते ही चले गए, जब तक हमने उनका सामना नहीं कर लिया।"
इसी तरह, जब इनकी बटालियन को सियाचिन में तैनात होना था,तब मनोज युवा अफसरों की एक ट्रेनिंग पर थे। वह इस बात को लेकर परेशान हो रहे थे कि इस ट्रेनिंग की वजह से वह सियाचिन नहीं जा पाएँगे।
जब इस टुकड़ी को कठिनाई भरे काम को अंजाम देने का मौका मिला, तो मनोज ने अपने कमांडिंग अफसर को लिखा कि अगर उनकी टुकड़ी उत्तरी ग्लेशियर की ओर जा रही हो तो उन्हें 'बाना चौकी' दी जाए और अगर कूच सेंट्रल ग्लोशियर की ओर हो, तो उन्हें 'पहलवान चौकी' मिले।
यह दोनों चौकियाँ बहुत कठिन थी।यहाँ तैनाती वीरों से बहुत हिम्मत और अटल इरादों की माँग करतीं हैं। देशप्रेम से भरे मनोज कुमार पाण्डेय यही चाहते थे।आखिर उनका सपना पूरा हुआ। मनोज कुमार पांडेय को लम्बे वक्त के लिए 19700 फीट ऊँची 'पहलवान चौकी' पर डटे रहने का अवसर मिला।
यह चौकी जहाँ मौजूद थी, वहाँ की परिस्थितयां सहज नहीं थी।वहाँ की ठंड और बर्फीली हवाओं में ज्यादा देर तक खड़ा तक होना मुश्किल था।
मनोज के लिए यह एक कड़ी चुनौती थी, लेकिन मनोज घबराये नहीं, वह पूरे जोश, और जूनून के साथ अपनी पोस्ट पर तीन महीने तक अपने साथियों के साथ अपना कर्तव्य निभाते रहे।
सियाचिन की चौकी से मनोज कुमार पाण्डेय की टुकड़ी अभी वापस ही लौटकर आई थी कि तभी 3 मई 1999, को कारगिल युद्ध के संकेत मिलने लगे। मनोज पाण्डेय ने आराम की बात भूलकर देश के दुश्मनों को धूल में मिलाने के लिए तैयार हो गए।
मनोज कुमार पाण्डेय वो पहले अफसर थे जिन्होंने खुद आगे बढ़ कर कारगिल के युद्ध में शामिल होने की बात कही,अगर मनोज कुमार चाहते तो सियाचिन से हाल ही वापसी की वजह से उन्हें छुट्टी भी मिल सकती थी।
मनोज कुमार पाण्डेय के दिल में देश प्रेम की लहरें हिलोरें ले रही थीं।वो तो जैसे इस मौके के इंतजार में बैठे ही थे. उन्होंने आगे बढ़ कर नेतृत्व किया।
करीब दो महीने तक चले ऑपरेशन में कुकरथाँग, जूबरटॉप जैसी कई चोटियों को विरोधियों के कब्ज़े से आजाद कराया.
वो खुद इस युद्ध के लिए आगे आए और अपने जीवन के सबसे निर्णायक युद्ध के लिए 2/3जुलाई 1999 को निकल पड़े।
उनकी बटालियन की बी कंपनी को खालूबार फतह करने का जिम्मा दिया गया।वहाँ ऊँचाई पर दुश्मनों के बंकर बने हुए थे और नीचे हमारे वीर जांबाज।
दिन में चोटी पर चढ़ाई संभव नहीं थी, इसके लिए रात की रणनीति बनाई गई।रात को अंधेरा गहराते ही मनोज कुमार पाण्डेय की टुकड़ी ने पाकिस्तानी सेना पर हमला शुरू किया।
जैसे-जैसे ही उनकी कम्पनी आगे बढ़ रही थी। वैसे ही उनकी टुकड़ी को दोनों तरफ की पहाड़ियों से दुश्मनों की गोलियों की जबरदस्त बौछार का सामना करना पड़ रहा था।
वहाँ ऊपर दुश्मनों ने अपने बंकर बना रखे थे।संकरे रास्ते से होते हुए मनोज ‘जय महाकाली,आयो गोरखाली’ का नारा लगाते हुए दुश्मनों से जा टकराए।
चारों तरफ से फायरिंग हो रही थी।अब मनोज का पहला काम उनके बंकरों को तबाह करना था। जिसके लिए उन्होंने तुरंत हवलदार भीम बहादुर की टुकड़ी को आदेश दिया कि वह दाहिनी तरफ के दो बंकरों पर हमला करके उन्हें नाकाम कर दें।
मनोज पाण्डेय ने बाईं तरफ के चारों बंकरों को नष्ट करने का जिम्मा खुद अकेले पर ले लिया।मनोज ने निडर होकर हमला करना शुरू कर दिया था।
उन्होंने एक के बाद एक चार दुश्मनों को मार गिराया।पर इस जंग में एक गोली मनोज की कमर पर लग गई और दूसरी उनके कंधे पर फिर भी वह रुके नहीं,मनोज के हौसले फिर भी बुलंद थे।
अब उनका लक्ष्य तीसरा और चौथा बंकर था।मनोज एक के बाद एक बंकरों को तबाह करते हुए आगे बढ़ रहे थे। वे अपने घावों से बहते रक्त की परवाह किए बगैर वह चौथे और अंतिम बनकर की ओर बढ़े।उन्होंने जोर से गोरखा पल्टन की जय का नारा लगाया और चौथे बंकर पर एक हैण्ड ग्रेनेड फेंक दिया।
उनके हाथ से फेंके हुए ग्रेनेड का अचूक निशाना ठीक चौथे बंकर पर जाकर लगा और एक क्षण में उसे तबाह कर गया लेकिन मनोज कुमार पाण्डेय भी उसी समय तक बुरी तरह घायल हो चुके थे।
दुश्मन की मशीन गन से निकली एक गोली मनोज कुमार के माथे पर लगी।घायल अवस्था में भी मनोज ने अपने पास रखी खुखरी निकाली और काल बनकर दुश्मन पर टूट पड़े।
मनोज कुमार ने अपनी खुखरी से ही चार पाकिस्तानी सैनिकों को वहीं मौत के घाट उतार दिया और उस बंकर पर कब्जा जमा लिया।
घायलावस्था में भी मनोज का अदम्य साहस देखकर उनकी टुकड़ी के अन्य सैनिकों का हौसला दुगना हो गया। और वे पूरे जोश के साथ पाकिस्तानी सेना पर हमला करने लगे थे ।
माथे पर गोली लगने से अत्याधिक खून बह जाने की कारण से मनोज कुमार अंतिम बंकर पर पस्त होकर गिर गए थे।पर फिर भी अपने साथियों से खुद को छोड़कर आगे बढ़ने के लिए कह रहे थे।
मनोज कुमार पाण्डेय की अगुवाई में उनकी टुकड़ी ने दुश्मन के 11 जवान मार गिराए थे।छह बंकर भारत के कब्जे में थे।
उसके साथ ही हथियारों और गोलियों का बड़ा जखीरा भी कैप्टन मनोज कुमार की टुकड़ी ने कब्जे में ले लिया था।उसमें एक एयर डिफेंस गन भी थी।
वह अपने साथियों से आखिरी दम तक कहते रहे थे। मेरी चिंता मत करो मैं ठीक हूँ। तुम लोग आगे बढ़ो किसी को भी छोड़ना नहीं, मनोज अपनी आँखों से अपने मिशन को पूरा होते हुए देखना चाहते थे।
कैप्टन मनोज की शहादत देख उनके साथी क्रोध से भर दुश्मन पर टूट पड़े। कैप्टन मनोज कुमार ने अपने साथियों का मरते दम तक साथ दिया।
उन्होंने एक बार फिर उसी हालत में भी बंदूक संभाली थी।पर उनके शरीर ने उनका साथ नहीं दिया।छह बंकर कब्जे में आ जाने के बाद खालूबार भारत की सेना के अधिकार में आ गया था।
आँखें बंद करने से पहले कैप्टन मनोज पाण्डेय खालुबार पोस्ट पर तिरंगा लहरा चुके थे।इस अविस्मरणीय अवसर की खुशी के साथ देश और उनके साथियों को अपने युुवा कैैैैैप्टन को शहीद होने का भी दुख था।
इस संघर्ष में विजयी भारत ने अपने चौबीस वर्षीय वीर कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय को हमेशा के लिए खो दिया था।
पाकिस्तान के साथ कारगिल युद्ध के सबसे कठिन मोर्चों में एक मोर्चा खालूबार का था। भारत ने इस युद्ध में विजय हासिल की और इतिहास के पन्नों पर इस वीर योद्धा का नाम स्वर्णिम अक्षरों में लिखा गया।
भारत के तिरंगे की शान को बुलंदी पर पहुँचाने के लिए देश के इस वीर योद्धा के अदम्य साहस को देखते हुए मरणोपरांत उन्हें सबसे बड़ा वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र दिया गया।
कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय को डायरी लिखना बहुत पसंद था। वे युद्ध के बीच में भी डायरी लिखा करते थे। उनकी डायरी में लिखे विचारों में देश के प्रति प्रेम और सम्मान खूब झलकता था।
मनोज को बाँसुरी बजाना भी बहुत पसंद था।वो कहीं भी जाते पर बाँसुरी साथ रखा करते थे।जब मन करता, उसे बजा लेते, फिर वापस अपने सामान के साथ रख देते थे।
मनोज कुमार को पढ़ने का बड़ा शौक था।वो हर तरह की जानकारी रखने की चाहत रखते थे।यही वजह थी कि वे एस्ट्रोलॉजी और पामिस्ट्री के ज्ञाता भी रहे।
मनोज कैंप में फुरसत के क्षणों में अपने साथियों के हाथ देखकर भविष्य बताया करते थे।
उनके पिताजी ने एक इंटरव्यू में कहा था कि उन्हें मनोज की पढ़ाई पर ज्यादा खर्च नहीं करना पड़ा।उनका बेटा इतना मेधावी था कि स्कॉलरशिप हासिल करके अपना इंतजाम कर लेते था।
डायरी लिखने के शौकीन मनोज ने अपनी डायरी में लिखा था,"अगर मौत मेरा शौर्य साबित होने से पहले मुझ पर हमला करती है तो मैं अपनी मौत को ही मार डालूंगा।"
कारगिल युद्ध पर बनी फिल्म में सर्वोच्च वीरता पदक परमवीर चक्र से सम्मानित कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय का किरदार अजय देवगन ने निभाया। कैप्टन मनोज के शौर्य की कहानी, उनके जीवन से जुड़ी अहम बातें गूगल,ई न्यूज पत्रिका,यूटुयूब हर जगह मौजूद है।
वतन की शान की खातिर खुद को न्यौछावर करने वाले देश के महान योद्धा, वीर सपूत मनोज कुमार पाण्डेय की शहादत को मेरा नमन।जय हिन्द जय भारत।
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार
मनोज कुमार पाण्डेय कारगिल युद्ध के महान योद्धा थे।उनके युद्धकौशल और अदम्य साहस और उनकी शहादत को न देश भूला है न कभी भूलेगा।
मनोज कुमार पाण्डेय का जन्म 25 जून 1975 में उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले के रूधा गाँव में हुआ था।उनके पिताजी का नाम गोपीचन्द्र पाण्डेय तथा उनकी माता का नाम मोहिनी था।
मनोज की शिक्षा लखनऊ के सैनिक स्कूल में हुई थी इसी कारण उनमें अनुशासन के भाव तथा देश प्रेम की भावना कूट-कूटकर भरी हुई थी।
मनोज पाण्डेय बचपन से ही बहुत ही मेधावी छात्र थे। मनोज ने अखिल भारतीय स्तर की छात्रवृत्ति परीक्षा कड़ी मेहनत से पास कर सैनिक स्कूल में दाखिला लिया।स्कूल हो या कॉलेज हर जगह खेल-कूद में हमेशा आगे रहते थे।
मनोज जब छोटे थे तो उनकी माँ उन्हें वीर योद्धाओं की कहानियां सुनाया करती थीं। जिसे सुनकर उनमें भी देश के प्रति कुछ कर गुजरने का जुनून बढ़ता गया।
मनोज की माँ ही हमेशा उनकी प्रेरणाश्रोत रही थी। वह हमेशा उन्हें कुछ ऐसा काम करने के लिए प्रेरित करती थी कि लोग उन्हें याद करें तो सम्मान के साथ याद करें।
मनोज की माँ हमेशा ही उनका हौसला बढ़ाया करती थीं। उनकी दिली इच्छा थी,उनका बेटा जीवन के किसी भी मोड़ पर विकट से विकट चुनौतियों का सामना करने में घबराये नहीं और देश का नाम रोशन करे।
बारहवीं पास करने के बाद उनका सपना डॉक्टर या इंजीनियर बनना नहीं था।उनका सपना तो बस आर्मी जॉइन करना था।वह आईआईटी और एनडीए दोनों में अच्छे नंबरों से पास हुए।
मनोज कुमार को प्रतियोगी परीक्षा में सफल होने के बाद पुणे के पास खड़कवासला स्थित राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में दाखिला मिल गया।
वहाँ प्रशिक्षण पूरा करने के पश्चात सेवा चयन बोर्ड ने उनका इंटरव्यू लेने के दौरान उनसे पूछा था,”आप सेना में क्यों शामिल होना चाहते हैं? मनोज ने जवाब दिया,"मैं परमवीर चक्र जीतना चाहता हूँ।"
मनोज कुमार पाण्डेय को न सिर्फ सेना में भर्ती किया गया बल्कि 1/11 गोरखा रायफल में भी कमिशन दिया गया था।सन् 1997 में मनोज कुमार पाण्डेय 1/ 11 गोरखा रायफल्स रेजिमेंट की पहली वाहनी के अधिकारी बने।
मनोज ने जो सपना देखा था वो सच हो गया था। वह बतौर एक कमीशंड ऑफिसर ग्यारहवां गोरखा राइफल्स की पहली बटालियन में पहुँच गए।
उनकी तैनाती कश्मीर घाटी में हुई। ठीक अगले ही दिन उन्होंने अपने एक सीनियर सेकेंड लेफ्टिनेंट पी. एन. दत्ता के साथ एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी को पूरा किया।
लेफ्टिनेंट पी.एन दत्ता एक आतंकवाडी गुट से मुठभेड़ में शहीद हो गए,और उन्हें अशोक चक्र प्राप्त हुआ जो भारत में युद्ध के अतिरिक्त बहादुरी भरे कारनामे के लिए दिया जाने वाला सबसे बड़ा इनाम है।
एक बार मनोज कुमार पाण्डेय को एक टुकड़ी लेकर गश्त के लिए भेजा गया था।और उन्हें वापस लौटने में बहुत देर हो गई थी। इस बात को लेकर सब बहुत चिंतित होने लगे थे।
दो दिन के बाद जब वह इस कार्यक्रम से वापस आए तो उनके कमांडिंग ऑफिसर ने उनसे इस देरी का कारण पूछा, तो उन्होंने जवाब दिया,"हमें हमारी गश्त में उग्रवादी मिले ही नहीं तो हम तब-तक आगे चलते ही चले गए, जब तक हमने उनका सामना नहीं कर लिया।"
इसी तरह, जब इनकी बटालियन को सियाचिन में तैनात होना था,तब मनोज युवा अफसरों की एक ट्रेनिंग पर थे। वह इस बात को लेकर परेशान हो रहे थे कि इस ट्रेनिंग की वजह से वह सियाचिन नहीं जा पाएँगे।
जब इस टुकड़ी को कठिनाई भरे काम को अंजाम देने का मौका मिला, तो मनोज ने अपने कमांडिंग अफसर को लिखा कि अगर उनकी टुकड़ी उत्तरी ग्लेशियर की ओर जा रही हो तो उन्हें 'बाना चौकी' दी जाए और अगर कूच सेंट्रल ग्लोशियर की ओर हो, तो उन्हें 'पहलवान चौकी' मिले।
यह दोनों चौकियाँ बहुत कठिन थी।यहाँ तैनाती वीरों से बहुत हिम्मत और अटल इरादों की माँग करतीं हैं। देशप्रेम से भरे मनोज कुमार पाण्डेय यही चाहते थे।आखिर उनका सपना पूरा हुआ। मनोज कुमार पांडेय को लम्बे वक्त के लिए 19700 फीट ऊँची 'पहलवान चौकी' पर डटे रहने का अवसर मिला।
यह चौकी जहाँ मौजूद थी, वहाँ की परिस्थितयां सहज नहीं थी।वहाँ की ठंड और बर्फीली हवाओं में ज्यादा देर तक खड़ा तक होना मुश्किल था।
मनोज के लिए यह एक कड़ी चुनौती थी, लेकिन मनोज घबराये नहीं, वह पूरे जोश, और जूनून के साथ अपनी पोस्ट पर तीन महीने तक अपने साथियों के साथ अपना कर्तव्य निभाते रहे।
सियाचिन की चौकी से मनोज कुमार पाण्डेय की टुकड़ी अभी वापस ही लौटकर आई थी कि तभी 3 मई 1999, को कारगिल युद्ध के संकेत मिलने लगे। मनोज पाण्डेय ने आराम की बात भूलकर देश के दुश्मनों को धूल में मिलाने के लिए तैयार हो गए।
मनोज कुमार पाण्डेय वो पहले अफसर थे जिन्होंने खुद आगे बढ़ कर कारगिल के युद्ध में शामिल होने की बात कही,अगर मनोज कुमार चाहते तो सियाचिन से हाल ही वापसी की वजह से उन्हें छुट्टी भी मिल सकती थी।
मनोज कुमार पाण्डेय के दिल में देश प्रेम की लहरें हिलोरें ले रही थीं।वो तो जैसे इस मौके के इंतजार में बैठे ही थे. उन्होंने आगे बढ़ कर नेतृत्व किया।
करीब दो महीने तक चले ऑपरेशन में कुकरथाँग, जूबरटॉप जैसी कई चोटियों को विरोधियों के कब्ज़े से आजाद कराया.
वो खुद इस युद्ध के लिए आगे आए और अपने जीवन के सबसे निर्णायक युद्ध के लिए 2/3जुलाई 1999 को निकल पड़े।
उनकी बटालियन की बी कंपनी को खालूबार फतह करने का जिम्मा दिया गया।वहाँ ऊँचाई पर दुश्मनों के बंकर बने हुए थे और नीचे हमारे वीर जांबाज।
दिन में चोटी पर चढ़ाई संभव नहीं थी, इसके लिए रात की रणनीति बनाई गई।रात को अंधेरा गहराते ही मनोज कुमार पाण्डेय की टुकड़ी ने पाकिस्तानी सेना पर हमला शुरू किया।
जैसे-जैसे ही उनकी कम्पनी आगे बढ़ रही थी। वैसे ही उनकी टुकड़ी को दोनों तरफ की पहाड़ियों से दुश्मनों की गोलियों की जबरदस्त बौछार का सामना करना पड़ रहा था।
वहाँ ऊपर दुश्मनों ने अपने बंकर बना रखे थे।संकरे रास्ते से होते हुए मनोज ‘जय महाकाली,आयो गोरखाली’ का नारा लगाते हुए दुश्मनों से जा टकराए।
चारों तरफ से फायरिंग हो रही थी।अब मनोज का पहला काम उनके बंकरों को तबाह करना था। जिसके लिए उन्होंने तुरंत हवलदार भीम बहादुर की टुकड़ी को आदेश दिया कि वह दाहिनी तरफ के दो बंकरों पर हमला करके उन्हें नाकाम कर दें।
मनोज पाण्डेय ने बाईं तरफ के चारों बंकरों को नष्ट करने का जिम्मा खुद अकेले पर ले लिया।मनोज ने निडर होकर हमला करना शुरू कर दिया था।
उन्होंने एक के बाद एक चार दुश्मनों को मार गिराया।पर इस जंग में एक गोली मनोज की कमर पर लग गई और दूसरी उनके कंधे पर फिर भी वह रुके नहीं,मनोज के हौसले फिर भी बुलंद थे।
अब उनका लक्ष्य तीसरा और चौथा बंकर था।मनोज एक के बाद एक बंकरों को तबाह करते हुए आगे बढ़ रहे थे। वे अपने घावों से बहते रक्त की परवाह किए बगैर वह चौथे और अंतिम बनकर की ओर बढ़े।उन्होंने जोर से गोरखा पल्टन की जय का नारा लगाया और चौथे बंकर पर एक हैण्ड ग्रेनेड फेंक दिया।
उनके हाथ से फेंके हुए ग्रेनेड का अचूक निशाना ठीक चौथे बंकर पर जाकर लगा और एक क्षण में उसे तबाह कर गया लेकिन मनोज कुमार पाण्डेय भी उसी समय तक बुरी तरह घायल हो चुके थे।
दुश्मन की मशीन गन से निकली एक गोली मनोज कुमार के माथे पर लगी।घायल अवस्था में भी मनोज ने अपने पास रखी खुखरी निकाली और काल बनकर दुश्मन पर टूट पड़े।
मनोज कुमार ने अपनी खुखरी से ही चार पाकिस्तानी सैनिकों को वहीं मौत के घाट उतार दिया और उस बंकर पर कब्जा जमा लिया।
घायलावस्था में भी मनोज का अदम्य साहस देखकर उनकी टुकड़ी के अन्य सैनिकों का हौसला दुगना हो गया। और वे पूरे जोश के साथ पाकिस्तानी सेना पर हमला करने लगे थे ।
माथे पर गोली लगने से अत्याधिक खून बह जाने की कारण से मनोज कुमार अंतिम बंकर पर पस्त होकर गिर गए थे।पर फिर भी अपने साथियों से खुद को छोड़कर आगे बढ़ने के लिए कह रहे थे।
मनोज कुमार पाण्डेय की अगुवाई में उनकी टुकड़ी ने दुश्मन के 11 जवान मार गिराए थे।छह बंकर भारत के कब्जे में थे।
उसके साथ ही हथियारों और गोलियों का बड़ा जखीरा भी कैप्टन मनोज कुमार की टुकड़ी ने कब्जे में ले लिया था।उसमें एक एयर डिफेंस गन भी थी।
वह अपने साथियों से आखिरी दम तक कहते रहे थे। मेरी चिंता मत करो मैं ठीक हूँ। तुम लोग आगे बढ़ो किसी को भी छोड़ना नहीं, मनोज अपनी आँखों से अपने मिशन को पूरा होते हुए देखना चाहते थे।
कैप्टन मनोज की शहादत देख उनके साथी क्रोध से भर दुश्मन पर टूट पड़े। कैप्टन मनोज कुमार ने अपने साथियों का मरते दम तक साथ दिया।
उन्होंने एक बार फिर उसी हालत में भी बंदूक संभाली थी।पर उनके शरीर ने उनका साथ नहीं दिया।छह बंकर कब्जे में आ जाने के बाद खालूबार भारत की सेना के अधिकार में आ गया था।
आँखें बंद करने से पहले कैप्टन मनोज पाण्डेय खालुबार पोस्ट पर तिरंगा लहरा चुके थे।इस अविस्मरणीय अवसर की खुशी के साथ देश और उनके साथियों को अपने युुवा कैैैैैप्टन को शहीद होने का भी दुख था।
इस संघर्ष में विजयी भारत ने अपने चौबीस वर्षीय वीर कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय को हमेशा के लिए खो दिया था।
पाकिस्तान के साथ कारगिल युद्ध के सबसे कठिन मोर्चों में एक मोर्चा खालूबार का था। भारत ने इस युद्ध में विजय हासिल की और इतिहास के पन्नों पर इस वीर योद्धा का नाम स्वर्णिम अक्षरों में लिखा गया।
भारत के तिरंगे की शान को बुलंदी पर पहुँचाने के लिए देश के इस वीर योद्धा के अदम्य साहस को देखते हुए मरणोपरांत उन्हें सबसे बड़ा वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र दिया गया।
कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय को डायरी लिखना बहुत पसंद था। वे युद्ध के बीच में भी डायरी लिखा करते थे। उनकी डायरी में लिखे विचारों में देश के प्रति प्रेम और सम्मान खूब झलकता था।
मनोज को बाँसुरी बजाना भी बहुत पसंद था।वो कहीं भी जाते पर बाँसुरी साथ रखा करते थे।जब मन करता, उसे बजा लेते, फिर वापस अपने सामान के साथ रख देते थे।
मनोज कुमार को पढ़ने का बड़ा शौक था।वो हर तरह की जानकारी रखने की चाहत रखते थे।यही वजह थी कि वे एस्ट्रोलॉजी और पामिस्ट्री के ज्ञाता भी रहे।
मनोज कैंप में फुरसत के क्षणों में अपने साथियों के हाथ देखकर भविष्य बताया करते थे।
उनके पिताजी ने एक इंटरव्यू में कहा था कि उन्हें मनोज की पढ़ाई पर ज्यादा खर्च नहीं करना पड़ा।उनका बेटा इतना मेधावी था कि स्कॉलरशिप हासिल करके अपना इंतजाम कर लेते था।
डायरी लिखने के शौकीन मनोज ने अपनी डायरी में लिखा था,"अगर मौत मेरा शौर्य साबित होने से पहले मुझ पर हमला करती है तो मैं अपनी मौत को ही मार डालूंगा।"
कारगिल युद्ध पर बनी फिल्म में सर्वोच्च वीरता पदक परमवीर चक्र से सम्मानित कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय का किरदार अजय देवगन ने निभाया। कैप्टन मनोज के शौर्य की कहानी, उनके जीवन से जुड़ी अहम बातें गूगल,ई न्यूज पत्रिका,यूटुयूब हर जगह मौजूद है।
वतन की शान की खातिर खुद को न्यौछावर करने वाले देश के महान योद्धा, वीर सपूत मनोज कुमार पाण्डेय की शहादत को मेरा नमन।जय हिन्द जय भारत।
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार
ऐसे वीरों को कौनसे सुमन अर्पित करें
ReplyDelete,आँसूओं के सिवा काश ऐसे योद्धा सालों देश रक्षा हित सशरीर मौजूद रहते।
प्रैरक रोमांचक शोर्य से भीनी अभिव्यक्ति।
हार्दिक आभार सखी
Deleteऐसे वीर योद्धा को शत शत नमन...।
ReplyDeleteबहुत ही प्रेरक लाजवाब सृजन
हार्दिक आभार सखी
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