Wednesday, December 26, 2018

खोलो मन के द्वार

खोलो मन के द्वार
आने दो प्रेम की बाढ़
सब विषाद बह जाने दो
खुशियों को लहराने दो
क्या रखा अकेले जीने में
घुट-घुट कर दर्द सहने में
बीत चली अब साल पुरानी
नई साल की करो अगवानी
नववर्ष की जब मचेगी धूम
बुरी बातों को जाना तुम भूल
द्वार दिल के रखना खोलकर
खुशियां न लौटे मुंह मोड़कर
देख दिल के बंद दरवाजे
किसी को भी नहीं लगते प्यारे
चलो मिटाएं मन से द्वेष
बना रहे सभी का मन प्रेम
 ***अनुराधा चौहान***

Monday, December 24, 2018

बर्बादी का मंजर


अरे सुनती हो!!हरीहर बड़ा खुश दिखाई दे रहा था। पत्नी शीला को आवाज लगाता हुआ घर में प्रवेश करता है।
शीला साड़ी के पल्लू से हाथ पोंछती हुई आती है,क्या हुआ दुर्गा के बापू? आ बैठ बताता हूं तनिक पानी और गुड़ लेकर आजा। शीला जल्दी से पानी और गुड़ लेकर आती है।
हरीहर बताता है आज दुर्गा का रिश्ता पक्का कर दिया उसने पास के गांव के जमींदार के यहां। दहेज में एक लाख रुपए और सब सामान देना है। कहां से लाओगे दुर्गा के बापू इतना सब? दुर्गा चुपचाप माँ-बाप की बातें सुन रही थी। अरे तू चिंता मत कर इस बार फसल बहुत अच्छी हुई है। अच्छा पैसा मिलेगा और कुछ कम पड़ा तो थोड़ा बहुत उधार ले लेंगे, दुर्गा कहां है? दुर्गा!!!आज मैं दुर्गा के साथ खाना खाऊंगा कुछ दिन में पराई हो जाएगी मेरी बिटिया।
शीला खाना निकालती है तीनों खाना खाकर सो जाते हैं। पर उनकी खुशियों पर पानी फिर जाता है।रात अचानक मौसम ख़राब हो गया,बड़े जोरों से बारिश होने लगती है। बेमौसम की बरसात से हरीहर की फसल चौपट हो जाती है आंखों में आंसू लिए पति-पत्नी अपनी बर्बादी का मंजर देख रहे थे सब खत्म हो गया था।
दुर्गा भी बेबस लाचार कभी माँ के तो कभी बाप के आंसू पोंछ रही थी। सबसे बड़ी चिंता दुर्गा की शादी की थी।अब पैसा कहां से आएगा।खेत तो पहले से गिरवी पड़े थे, सोचा था इस बार खेत भी छुड़ा लेगा।
शीला के कहने पर हरीहर जमींदार से शादी की बात करता है।कहता है धीरे-धीरे सब मांग पूरी कर देगा आप लोग समय पर बारात ले आना।
जमींदार भी दुर्गा का रिश्ता तोड़ देता है, वह हरीहर को बोलता है। पैसा नहीं तो शादी नहीं।हरीहर की बहुत कोशिश के बाद भी रिश्ता टूट जाता है। एक तरफ फ़सल चौपट दूसरी तरफ बेटी की शादी टूटने का ग़म हरीहर टूट जाता है।पर वह कोई ग़लत क़दम न उठाले दुर्गा अपने पिता के गले लग उसे समझाती है।हम फिर मेहनत करेंगे, फिर अच्छे दिन आएंगे। शीला और दुर्गा का साथ पाकर हरीहर का दुःख कम हो जाता है।पर तीनों जानते थे बहुत मुश्किल है,एक किसान का फिर से खड़ा हो पाना कैसे बीज लाएगा जब पहला ही कर्जा नहीं उतरा।
 ***अनुराधा चौहान***लघुकथा

Wednesday, December 19, 2018

झांसी की रानी

सन् सत्तावन का युद्ध हुआ
जली अलख आज़ादी की
सीने में देशप्रेम की ज्वाला ले
रणभूमि में उतरी रानी थी
मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी
हुंकार लगाई रानी ने
खूब लड़ी मर्दानी थी वह
बिजली की तरह चमक उठी
बन काली कल्याणी वह
दुश्मन के ऊपर टूट पड़ी
तन से थी वह नार नवेली
सीने से फौलादी थी
काली कजरारी आंखों से
वह शोले बरसाती थी
थी बिजली सी तेजी उसमें
दुश्मन के छक्के छुड़ाती थी
रग-रग में देशप्रेम की भावना
हृदय वात्सल्य से भरा हुआ
पुत्र पीठ पर बांधकर अपनी
सेना में  अपनी जोश भरा
शीश काट दुश्मन के उसने
मातृभूमि को भेंट किया
लड़ते-लड़ते घायल हो गई
अंत समय तक युद्ध किया
अंत समय भी तन को अपने
दुश्मन के हाथ न लगने दिया
आजादी के लिए देकर प्राण
रानी ने एक इतिहास रचा
जीते-जी झांसी को अपनी
अंग्रेजों को छूने न दिया
खूब लड़ी मर्दानी थी वह
झांसी वाली रानी थी
शत् शत् नमन हम करते
वो वीर वीरांगना रानी थी
***अनुराधा चौहान***

Tuesday, December 18, 2018

दिसंबर घर जाने को तैयार

 
समेट कर वर्ष की चादर 
दिसंबर घर जाने को तैयार
खट्टे-मीठे अनुभव की दे याद
नववर्ष से कराकर साक्षात्कार
अगले वर्ष फ़िर आने के लिए
दिसंबर घर जाने को तैयार
सर्द हवा चले होले होले
फूलों पर जमे ओस की बूंदें
कोहरे की देकर घनी सौगात
दिसंबर घर जाने को तैयार
गुनगुनी धूप मन को लुभाए
ठंडी हवाएं ठिठुरन बढ़ाए
आने वाला वर्ष हो ख़ास
लेकर हमसे फिर एक साल
दिसंबर घर जाने को तैयार
दिन छोटे हुए रातें हुईं लम्बी
बीत गई साल फ़िर से जल्दी
वक्त की कितनी तेज रफ्तार
दिसंबर घर जानेे को तैयार
***अनुराधा चौहान***

Sunday, December 16, 2018

परवरिश संस्कारों की

चित्र गूगल से साभार

शालिनी जी एक संपन्न परिवार की प्रभावशाली व्यक्तित्व की महिला थी।समाज में उनकी बहुत इज्जत थी। चेहरे पर हमेशा पैसे का गुरूर स्पष्ट दिखाई देता था।दो बेटों की माँ घर में उनका कठोर अनुशासन चलता था।पति को कारोबार से फुर्सत नहीं मिलती थी।
शालिनी जी ने बड़े बेटे की शादी अपने हैसियत के अनुसार बड़े घर की बेटी मेघा से कर दी। बड़े घर की बेटी थी उसकी परवरिश नौकर चाकर की देखरेख में हुई थी,तो रुतबा शालिनी जी से कम कैसे होता। वहीं छोटे बेटे ने अपनी मर्जी से शादी कर ली। 
सुधा के पापा एक बैंक में मामूली क्लर्क थे, वो सुधा को सुख-सुविधा तो नहीं दे पाए। परवरिश में संस्कार भरपूर दिए।बेटे की ज़िद के आगे शालिनी जी हार गईं,और सुधा शालिनी जी के घर बहू बन कर आ गई।पर दिल तक नहीं पहुंच पाई। 
मेघा और शालिनी जी अक्सर सुधा को बेइज्जत करते थे। एक दिन शालिनी जी की गाड़ी दुर्घटनाग्रस्त हो जाती है। शालिनी बच तो जाती हैं,पर घायल होने के कारण कई महिनों के लिए बिस्तर पर पड़ जाती हैं। 
सुधा जी जान से शालिनी जी की सेवा करके उन्हें स्वस्थ कर लेती है।पर इस बीच में बड़ी बहू मेघा एक बार उन्हें देखने आई। और नौकरों को उनकी देखभाल करने को बोलकर चली गई। आज शालिनी जी को एहसास हुआ कि पैसे से ज्यादा जरूरी अच्छी परवरिश होती है।
सुधा का परिवार हैसियत में उनसे जरूर कम था पर उन्होंने सुधा को दहेज में संस्कार भरपूर दिए। इस तरह सुधा शालिनी जी की चहेती बहू बन जाती है।***अनुराधा चौहान***मेरी स्वरचित लघुकथा✍

Friday, December 14, 2018

कोहरा


चलती हैं सर्द हवाएं
छाया है घना कोहरा
बंधक बनी सूर्य किरण
धरती पर लगा पहरा

यह कोहरा तो है मौसमी
मिट जाएगा कुछ दिनों में
उस कोहरे को कैसे मिटाओगे
जिसने दिलों को घेरा

छिप गई कोहरे में कहीं
इंसानियत भी कुछ कुछ
जिसे ढूंढना है मुश्किल
दुनियां की हर गली में

छाया दिलों-दिमाग़ पर
अज्ञानता का कोहरा
जिसे मिटा सके जो
वो प्रकाश कैसे होगा

कभी तो वो दिन आएगा
जब इंसानियत हंसेगी
आशा की किरणों से ही
रोशन जहां यह होगा

***अनुराधा चौहान***

Sunday, December 2, 2018

जलने वालों की कमी नहीं

मोहनलाल बचपन से ही हर काम में बहुत तेज थे। कोई भी काम हो जल्दी ही सीख जाते थे। अभी कुछ दिन पहले ही रिटायर हो कर अपने शहर जोधपुर वापस आए थे। पिता जी मूर्तिकार थे बचपन में पिता के साथ सीखा करते थे,तो वो हुनर मोहनलाल को भी आता था।सो वापस आकर अपनी इस कला को मूर्त रूप देने लगे।
देवी कृपा समझो कि इतने वर्षों बाद भी हाथ की सफाई गई नहीं मूर्तियां सुंदर बन निकली तो बच्चों ने मोहनलाल को एक दुकान खुलवा दी।
मोहनलाल का शौक और आमदनी दोनों शुरू हो गई दुकान भी चल निकली।पर जलने वालों की दुनियां में कमी नहीं सो उनके बचपन के मित्र घनश्याम जो शुरू से ही इस पेशे से जुड़े हुए थे।मन ही मन जलने लगे।
घनश्याम मोहनलाल के मुंह पर उनकी बहुत तारीफ करते थे।पर पीठ पीछे लोगों से कहते फिरते,कि मोहनलाल नहीं बनाता मूर्ति वो तो बाहर से लेकर बनी-बनाई मुर्तियां अपने नाम से बेचता है।
मोहनलाल सुनकर मुस्कुरा उठते थे। बच्चों को यह सुनकर गुस्सा आता था पिता से कहते आप कुछ कहते क्यों नहीं। मोहनलाल बच्चों को समझाते दुनियां में जलने वालों की कमी नहीं किसी के कहने पर नहीं जाना चाहिए ।छोड़ो बेकार की बातें अपने आप को देखो बस और खुश रहो। मोहनलाल मुस्कुराते हुए ।अमर प्रेम फिल्म के गीत की पंक्तियां गुनगुनाने लगते।
कुछ तो लोग कहेंगे
लोगों काम है कहना
छोड़ो बेकार की बातों में
कहीं बीत न जाए रैना
और फिर अपने काम में व्यस्त हो जाते हैं।
***अनुराधा चौहान***