बेचैन मन को चैन नहीं,
तो जग अंधियारा दिखता है।
चिंता-फिकर का रोग लगा,
मधुवन भी उजड़ा दिखता है।
डला आँखों पे झूठ का परदा,
अब अपनापन कहाँ दिखता है।
राग-द्वेष को मन में बसा लिया,
फिर मन का प्रेम कहाँ दिखता है।
चैन की बंशी अब कहाँ बजे,
जब भाग्य ही रूठा दिखता है।
पल दो पल का जीवन मेला,
इंसान खिलौने-सा यहाँ नचता है।
रिश्तों का बंधन रिक्त हो रहा,
सिर्फ दिखावा सिर उठाए चलता है।
सच्चाई से मुँह मोड़कर इंसान,
चादर झूठ की ओढ़े फिरता है।
किसी की बात न सुनना "अनु" तुम,
यहाँ हर कोई छलावा-सा दिखता है।
***अनुराधा चौहान***
सुन्दर रचना।
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीय
Deleteधन्यवाद यशोदा जी
ReplyDeleteवाह बहुत सुंदर सृजन सखी ।
ReplyDeleteयथार्थ।
हार्दिक आभार सखी
Deleteक्या खूब सत्य लिखा है रिश्तों के लिए आपने, अनुराधा जी परंतु आपकी कहानियां भी उतनी ही दमदार है , मर्मस्पर्शी ....वाह
ReplyDeleteआपकी सुंदर प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीया
Deleteकिसी की बात न सुनना "अनु" तुम,
ReplyDeleteयहाँ हर कोई छलावा-सा दिखता है।.....भावपूर्ण !
हार्दिक आभार आदरणीया
Deleteअति उत्तम ,सत्य की राह आसान नहीं है
ReplyDeleteजी हार्दिक आभार सखी 🌹
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