एक दशक पहले मिला था उससे मेरे साथ ही कॉलेज में पढ़ाई करती थी। उसके बाद कुछ महीने पहले उसे वाराणसी के घाट पर बैठे देखा, एक बार में उसे पहचान नहीं सका पहचानता भी कैसे हर समय मुस्कान का आवरण ओढ़े रहने वाली आज इतनी शांत.. भावहीन चेहरा।
पूछा था उससे.. क्या हुआ.. कैसे हुआ.. पर कुछ जवाब देना उचित नहीं समझा उसने आँखों में नमी लेकर लौट गई थी। यहीं किसी विधवाश्रम में रह रही थी शायद।
फिर भी मैंने हिम्मत नहीं हारी छुप-छुपकर उसे देखता उसके बारे में जानने की कोशिश करता।उसे भी अहसास हो गया था शायद मेरी हरकतों का।
एक दिन.. सुनो...क्या जानना चाहते हो क्यों पीछा करते हो दिखाई दे रहा है न मैं एक विधवा हूँ एक सामाजिक अपराधी जिसका कोई गुनाह नहीं फिर भी अपराधियों जैसी ज़िंदगी...क्या जानना है क्यों हुआ कैसे हुआ कब हुआ... मैं चुप था शायद उसके जख्मों को कुरेदने का गुनाह जो किया था मैंने।
माफ़ करना तुम्हारा दिल दुखाने का मेरा इरादा नहीं था।तुम मेरे साथ कॉलेज में पढ़ी हो तुम्हारी मुस्कान ही तुम्हारी पहचान थी यही वजह थी तुम्हारे बारे में जानना चाहा।
तुम नहीं बताना चाहती कोई बात नहीं दो दिन रुकूँगा यहाँ कुछ काम से आया था।अगर दिल करे तो फोन करना यह मेरा फोन नंबर...अपना कार्ड देकर बिना जबाव सुने मैं वहाँ से चला आया था।
फोन किया उसने..... नहीं.... और आपने...आप उसे मन ही मन चाहते थे..?हाँ.. और वो..... शायद हाँ वो हमेशा मुझसे मिलने के बहाने ढूँढा करती थी।उसे मेरा साथ बहुत पसंद है कहा करती थी छुट्टियों में घर गई थी फिर लौटी नहीं।
आपने ढूँढा नहीं पता नहीं किया.... अयोध्या गया था कई बार पर वो लोग कहीं और रहने लगे थे और वहाँ कभी-कभार ही आते थे।
ठीक है बाबा आप आराम करो प्रज्ञा विक्रम को सोने के लिए कहकर अपने कमरे में चली गई उसके हाथ में सुगंधा की तस्वीर थी जो विक्रम ने वाराणसी से आते समय चुपचाप खींच ली थी।
आज यही तस्वीर देखकर प्रज्ञा विक्रम से सवाल कर बैठी थी।मात्र पंद्रह साल छोटी है प्रज्ञा विक्रम से एक अनोखा रिश्ता बाप-बेटी का जो खून का नहीं दिल का रिश्ता था।
पंद्रह साल की थी प्रज्ञा जब एक हादसे में माँ-बाप की मौत के बाद विक्रम उसे लेकर उसके रिश्तेदारों के पास गया पर किसी ने भी जिम्मेदारी लेने से इंकार कर दिया था।
तब कानूनी तौर से विक्रम ने प्रज्ञा को गोद ले लिया था।अब बाईस वर्ष की हो गई थी,प्रज्ञा विक्रम के अनकहे दर्द को समझ रही थी।
क्रमशः
***अनुराधा चौहान***
पूछा था उससे.. क्या हुआ.. कैसे हुआ.. पर कुछ जवाब देना उचित नहीं समझा उसने आँखों में नमी लेकर लौट गई थी। यहीं किसी विधवाश्रम में रह रही थी शायद।
फिर भी मैंने हिम्मत नहीं हारी छुप-छुपकर उसे देखता उसके बारे में जानने की कोशिश करता।उसे भी अहसास हो गया था शायद मेरी हरकतों का।
एक दिन.. सुनो...क्या जानना चाहते हो क्यों पीछा करते हो दिखाई दे रहा है न मैं एक विधवा हूँ एक सामाजिक अपराधी जिसका कोई गुनाह नहीं फिर भी अपराधियों जैसी ज़िंदगी...क्या जानना है क्यों हुआ कैसे हुआ कब हुआ... मैं चुप था शायद उसके जख्मों को कुरेदने का गुनाह जो किया था मैंने।
माफ़ करना तुम्हारा दिल दुखाने का मेरा इरादा नहीं था।तुम मेरे साथ कॉलेज में पढ़ी हो तुम्हारी मुस्कान ही तुम्हारी पहचान थी यही वजह थी तुम्हारे बारे में जानना चाहा।
तुम नहीं बताना चाहती कोई बात नहीं दो दिन रुकूँगा यहाँ कुछ काम से आया था।अगर दिल करे तो फोन करना यह मेरा फोन नंबर...अपना कार्ड देकर बिना जबाव सुने मैं वहाँ से चला आया था।
फोन किया उसने..... नहीं.... और आपने...आप उसे मन ही मन चाहते थे..?हाँ.. और वो..... शायद हाँ वो हमेशा मुझसे मिलने के बहाने ढूँढा करती थी।उसे मेरा साथ बहुत पसंद है कहा करती थी छुट्टियों में घर गई थी फिर लौटी नहीं।
आपने ढूँढा नहीं पता नहीं किया.... अयोध्या गया था कई बार पर वो लोग कहीं और रहने लगे थे और वहाँ कभी-कभार ही आते थे।
ठीक है बाबा आप आराम करो प्रज्ञा विक्रम को सोने के लिए कहकर अपने कमरे में चली गई उसके हाथ में सुगंधा की तस्वीर थी जो विक्रम ने वाराणसी से आते समय चुपचाप खींच ली थी।
आज यही तस्वीर देखकर प्रज्ञा विक्रम से सवाल कर बैठी थी।मात्र पंद्रह साल छोटी है प्रज्ञा विक्रम से एक अनोखा रिश्ता बाप-बेटी का जो खून का नहीं दिल का रिश्ता था।
पंद्रह साल की थी प्रज्ञा जब एक हादसे में माँ-बाप की मौत के बाद विक्रम उसे लेकर उसके रिश्तेदारों के पास गया पर किसी ने भी जिम्मेदारी लेने से इंकार कर दिया था।
तब कानूनी तौर से विक्रम ने प्रज्ञा को गोद ले लिया था।अब बाईस वर्ष की हो गई थी,प्रज्ञा विक्रम के अनकहे दर्द को समझ रही थी।
क्रमशः
***अनुराधा चौहान***
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 13 जुलाई 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteसहृदय आभार यशोदा जी
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