Sunday, June 28, 2020

नन्ही जन्नत

खूबसूरत वादियों, ऊँची-ऊँची पहाड़ियों से घिरी कश्मीर को धरती की जन्नत कहा जाता है।और कश्मीर का दिल कही जाने वाली डल झील की खूबसूरती कश्मीर आने वालों को हमेशा ही अपनी ओर आकर्षित करती है।

हर वर्ष लाखों की संख्या में सैलानी यहाँ आकर झील में मौजूद खूबसूरत हाउसबोटों में रहकर झील की खूबसूरती का आनंद उठाते हैं।

पिछले कई कुछ वर्षों से सैलानियों की बढ़ती संख्या, और हाउसबोटों से निकलने वाली गंदगी ने और डल झील पर सब्जियों की खेती करने की वजह से डल झील में प्रदूषण का स्तर बढ़ने लगा।

डल झील की बढ़ते प्रदूषण को देख, डल झील की सफाई का जिम्मा उठाया नन्ही-सी बच्ची जन्नत ने।जन्नत अभी सात साल की दूसरी कक्षा में पढ़ती है।

जन्नत ने जब इस कार्य की शुरूआत की थी।तब वह सिर्फ पाँच वर्ष की थीं और श्रीनगर के राजबाग स्थित लिंटन हॉल स्कूल में अपर केजी में पढ़ती थी।

अपने पापा को यह काम करते देख नन्ही जन्नत ने उनसे इसका कारण पूछा तो पिता ने बताया कि वो डल झील को स्वच्छ रखने के लिए यह कार्य करते है।

पिता की बात से नन्ही जन्नत के दिल पर गहरा प्रभाव पड़ता।बस तभी जन्नत ने कश्मीर की इस खूबसूरत डल झील से कचरा हटाने का दृढ़ निश्चय कर लिया।
जन्नत अपनी पढ़ाई के साथ इस कार्य को बड़ी मेहनत और लगन से करने लगी।इन दो वर्षों में जन्नत अपने आस-पास के लोगों के साथ-साथ अपने साथियों को भी इस मुहीम का हिस्सा बनने के लिए प्रेरित करती रहती है।

जन्नत डल झील से सटे गोल्डन डल इलाके में हाउसबोट में रहती है। जन्नत कभी अकेले तो कभी अपने पिता के साथ डल झील की सफाई करने निकल जाती है।जहाँ भी उसे कचरा दिखाई पड़ता है, उसे अपने शिकारे में जमा करती जाती है।

जन्नत डल झील से कचरा उठाकर अपनी किश्ती में जमा करती है उसे उसके पिता नगरनिगम तक पहुँचाने का काम करते हैं।

जन्नत के इस सराहनीय कार्य के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने भी ट्वीट कर खूब सराहा‌। उन्होंने मन की बात में जन्नत का जिक्र कर कहा कि सभी बच्चों को इस नन्ही बालिका से सीख लेनी चाहिए।

जन्नत एक इंटरव्यू में कहती है कि हर किसी को अपने आस-पास की साफ-सफाई के लिए आगे आना चाहिए। अपने आसपास सफाई रखना हम सबकी जिम्मेदारी है।


जन्नत अब सात वर्ष की हो चुकी है।पर उसके नियम वही है। वह आज भी स्कूल से आने के बाद अपनी छोटी सी किश्ती लेकर नियम से डल झील की सफाई करने में जुट जाती है।

जन्नत कहती है, मेरे पापा एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं। और मेरी प्रेरणास्रोत भी। मैं अकसर पापा को झील से कचरा निकालते और फेंकती देखती थी। एक दिन मेरे मन में भी विचार आया कि मुझे भी यह काम करके अपनी इस सुंदर डल झील को साफ करना है।

जन्नत आने-जाने वाले जिस भी सैलानी मिलती है,वो उन्हें भी झील में कचरा न फैंकने की गुजारिश करती है।जन्नत कहती है लोगों को समझना चाहिए। वो लोग यहाँ घूमने आते हैं और गंदगी कर जाते हैं। यह हम सबकी जिम्मेदारी है।हम अपनी खूबसूरत डल झील को गंदा होते नहीं देख सकते हैं।

जन्नत ने अपने पिता के साथ मिलकर "जन्नतस मिशन डल लेक ए न्यू बिगनिंग"यह अभियान शुरू किया है।इस काम के लिए जन्नत के पिता तारिक अहमद पतलू ने डल झील को प्रदूषण मुक्त करने के लिए एक रोड मैप भी तैयार किया है। तारिक अहमद इस रिपोर्ट को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी को सौंपना चाहते हैं।

इंटरव्यू के दौरान जन्नत कहती है मुझे बाबा को यह काम करते देख लगा मुझे भी उनकी मदद करनी चाहिए। अपने पिता से प्रेरित होकर जन्नत दो साल से डल झील को साफ कर रही है।
जन्नत की इस सराहनीय पहल को हैदराबाद स्थित स्कूल के पाठ्यक्रम में भी शामिल कर लिया गया है।जन्नत के पिता तारिक अहमद को फोन करके इसकी जानकारी मिली तो एक पल के लिए उन्हें विश्वास नहीं हुआ था।बाद में सच्चाई जानकर उनकी आँखों में खुशी के आँसू छलक पड़े।

तारिक अहमद बड़े गर्व से कहते हैं ।उनकी बेटी बहुत ही प्रतिभाशाली और प्रकृति प्रेमी है। उसने केवल उनका ही नहीं, उनके साथ-साथ पूरे कश्मीर का नाम भी रोशन किया है।

खेल-कूद की उम्र में जन्नत डल झील को स्वच्छ बनाने में लगी है।जन्नत कहती है मुझे बहुत खुशी हो रही है कि सब मेरे काम की तारीफ करते हैं।और मेरे इस प्रयास को स्कूल की किताब में भी जगह मिली है।

मैं तो अपने साथियों से भी कहती हूँ,आप सब भी आगे आइए और अपनी डल झील को स्वच्छ बनाइए, और सिर्फ डल झील ही नहीं हमें अपने आस-पास भी साफ-सफाई रखना चाहिए।

नन्ही जन्नत की धरती के जन्नत को स्वच्छ बनाए रखने की यह मुहीम वाकई में काबिले तारीफ है। जिस उम्र में बच्चे खेलकूद में व्यस्त रहते हैं।उस उम्र में जन्नत अपने छोटे से शिकारे को लेकर डल झील को स्वच्छ बनाने में व्यस्त रहती है।

जन्नत के बारे में जब मैंने न्यूज में देखा और कुछ ई न्यूज पेपर में भी पढ़ा। गूगल पर उसके विडियो भी देखे तो मैंने सोचा नन्ही बच्ची के सराहनीय कार्य के बारे में ज्यादा से ज्यादा लोगों को पता होना चाहिए।जन्नत के इस कार्य से सभी को सीख लेनी चाहिए।
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार

Thursday, June 25, 2020

बाबा हरभजन सिंह



टीवी पर न्यूज चल रही थी।गलवान घाटी में भारत और चीन की सेना के बीच हुई खूनी झड़प में और भारतीय वीर जवानों की शहादत देख कर हर्ष और रूही बहुत दुखी हो गए।

दादी माँ देखो! फिर से हमारे जवान शहीद हो गए। क्या मिलता है इन लोगों जो हमारे देश पर हमला करते हैं?इस बार हमला चीन की ओर से हुआ है।

हम्म.. बच्चों सच में ऐसी खबरें देखकर मन बहुत दुःख होता है। हमारे देश की खासियत है कि हमारी सेना कभी भी बिना वजह किसी को हानि नहीं पहुँचाती है पर कोई विश्वासघात करके हमें हानि पहुँचाने की कोशिश करने लगता है तो फिर तगड़ा सबक सिखाती है।

दादी माँ आज हमें वीर शहीदों की कहानी सुनाइए ना!

हाँ-हाँ क्यों नहीं पर पहले दूध खतम करो! आज मैं तुम लोगों को एक ऐसे वीर सैनिक की कहानी सुनाती हूँ जो अपनी मृत्यु के पश्चात भी देश की सेवा करते रहे हैं।

क्या? मरने के बाद!! यह कैसे संभव है दादी माँ?

माँ यह कैसे संभव है? गायत्री के बेटे और बहू भी टीवी बंद करके आ गए।

हाँ बच्चों एक बार सुनकर यह बात अविश्वसनीय लगती है हर कोई इस बात पर जल्दी विश्वास नहीं करता है।पर यह एक ऐसी सच्चाई है जिसे हमारी सेना भी महसूस कर चुकी है और इस बात को मानती भी है।

अच्छा तो फिर सुनाइए!

यह कहानी है बाईस वर्षीय शहीद बाबा हरभजन सिंह जी की जिन्हें नाथूला का नायक भी कहा जाता है। हरभजन सिंह बहुत कम उम्र में देश के लिए शहीद हो गए थे।

हरभजन का जन्म 30 अगस्त 1946 में जिला गुजरांवाला (वर्तमान पाकिस्तान में) के सदराना गांव में हुआ था।हरभजन सिंह ने सन 1955 में डी.ए.वी. हाईस्कूल, पट्टी से मैट्रिक की शिक्षा पूरी की थी।

उसने बाद हरभजन सिंह 30जून 1965 को भारतीय सेना के पंजाब में सिपाही के तौर पर भर्ती हुए थे।

यह उस समय की बात है जब पाकिस्तान ने अचानक ही भारत पर आक्रमण कर दिया था।तब हरभजन सिंह भी भारत की और से युध्द में शामिल हुए थे ।

उनकी वीरता और देश के प्रति सच्ची लगन को देखते हुए बाद में उन्हें 14वी राजपूत रेजीमेंट में ट्रांसफ़र कर दिया गया।

9 फरवरी 1966 को इनका स्थानांतरण 18 राजपूत रेजिमेंट के लिए कर दिया गया।1968 में उन्हें 23वें पंजाब रेजिमेंट के साथ पूर्वी सिक्किम में भेजा गया।

कहते हैं यही वो जगह थी जहाँ बाबा हरभजन सिंह एक हादसे का शिकार होकर असमय ही इस दुनिया से चले गए।

यह 4 अक्टूबर 1968 की बात है। एक दिन जब हरभजनसिंह घोड़े के काफिले पर रसद लेकर तुकु ला से डोंगचुई ले जा रहे थे।जिस रास्ते से वो जा रहे थे वो रास्ता बेहद खतरनाक और फिसलन भरा था।


जगह-जगह से बर्फ फिसल रही थी और अचानक पूर्वी सिक्किम के नाथू ला दर्रे के पास अचानक उनके घोड़े का पैर फिसल गया उन्होंने बहुत संभलने की कोशिश की पर वो गहरी घाटी में गिर गए।

खाई बहुत संकरी और गहरी थी।उस पर ऊँचाई बहुत थी और अत्याधिक ऊँचाई से गिरने से उनकी तत्काल मृत्यु हो गई और खाई में बहने वाले पानी के अत्याधिक तेज बहाव के साथ उनका शरीर वहाँ से बहता हुआ लगभग दो किलोमीटर दूर तक चला गया।

हरभजनसिंह उस समय इस यात्रा पर अकेले जा रहे थे।इस वजह से उनके साथ हुए हादसे का जल्दी ही किसी को पता नहीं चल पाया था। जिस समय खाई में गिरे थे उनकी उम्र मात्र बाईस साल थी।

तो फिर उनको किसी ने ढूँढा नहीं दादी? उनके घरवालों को उनके विषय में कैसे पता चला?

हाँ मां बताइए ना? हमारी भी उत्सुकता बढ़ती ही जा रही है। नेहा और राजीव बोले।

बताती हूँ ध्यान से सुनो!!देर रात तक जब हरभजन सिंह वापस नहीं आए तो उनके साथी सिपाहियों ने अनिष्ट की आशंका से उनकी खोज शुरू कर दी।हर जगह उन्हें बहुत ढूँढा गया पर हरभजनसिंह का कहीं भी कुछ पता नहीं चला।

दो दिन खोजने के बाद थक-हारकर सब चुप बैठ गए।इस

घटना को घटे दो-तीन दिन हो गए थे। बाबा हरभजन सिंह को लेकर उनके साथियों और अधिकारियों के बीच तरह-तरह की बातें होने लगी। कुछ किसी हादसे में शहीद समझ रहे तो कुछ साथी भगोड़ा समझकर कहने लगे कि वो जान-बूझकर कहीं चला गया होगा अब कभी वापस नहीं आएगा। 

फिर तीन दिन बाद एक रात हरभजन सिंह अपने सैनिक साथी प्रीतम सिंह के सपने में आए और आकर उन्हें अपने साथ घटित हुई घटना की जानकारी दी और कहा कि वो कहीं नहीं गए बल्कि वो अब इस दुनिया में ही नहीं है।

क्या??यह कैसे हो सकता है?

हुआ है बच्चों!उसी दिन से उनके चमत्कार शुरू हो गए थे। 

उन्होंने प्रीतम सिंह से सपने में आकर कहा कि कैसे उनका पैर फिसल जाने से वह गहरी खाई में गिर गए और उनका पार्थिव शरीर पानी के तेज बहाव में बहता हुआ करीब दो किलोमीटर दूर फलां-फलां जगह पर पड़ा हुआ है।तुम लोग सुबह ही जाओ और मेरे पार्थिव शरीर को लेकर आओ और यहीं मेरा अंतिम संस्कार करो यह मेरी इच्छा है। 

सुबह होते ही उन्होंने यह बात सभी साथियों को बताई तो उनकी बात पर किसी ने गौर नहीं किया उनसे कहा गया कि तुम उनके बारे में ज्यादा सोचते हो और रात को भी उन्हीं के बारे में सोचते हुए सो गए इसलिए ऐसा सपना आया है।

साथियों की बातें सुनकर प्रीतम सिंह बोले ढूँढने में हर्ज ही क्या है? माना हमने उन्हें कई जगह ढूँढ लिया है चलो एक बार वहाँ भी देख लेते हैं हो सकता है सपना सच हो? 

फिर यूनिट के साथियों ने प्रीतम सिंह की बताए हुए सपने के अनुसार नाथूला दर्रे के पास नीचे खाई में खोजबीन शुरू कर दी। जल्दी ही उन्होंने उस स्थान को खोज लिया जैसा सपने में बाबा हरभजनसिंह ने बताया था ठीक वैसे ही उनका पार्थिव शरीर उस जगह से दो किलोमीटर दूर उनकी राइफल के साथ पड़ा मिला।

वीर हरभजन जी को शहीद घोषित कर दिया गया और जैसी उनकी अंतिम इच्छा थी ठीक वैसे ही पूरे राजकीय सम्मान के साथ वही पर उनका अंतिम संस्कार किया जाता है।

हरभजनसिंह ने सपने में यह भी कहा था कि उनके शव का अंतिम संस्कार नाथू ला में ही किया जाए और अंतिम संस्कार करने के बाद उस जगह पर उनकी याद में एक मंदिर बनवा दिया जाए।

पहले तो सैन्य अधिकारिओं ने इस बात को कोरा अंधविश्वास कहकर टाल दिया पर जब बाबा ने वही बात उन लोगों के सपनों में आकर कही, और वहाँ कुछ ऐसी चमत्कारी घटनाएं घटने लगीं और उन्हें भी हरभजन की आत्मा की मौजूदगी पर विश्वास होने लगा।फिर उन्होंने बाबा की बात मानकर उनकी याद में वहाँ एक मंदिर बना दिया। 


बाबा हरभजन ने अपने अधिकारियों से कहा उनका शरीर नष्ट हुआ है पर आत्मा जिंदा है।रात के समय वो अभी भी अपनी ड्यूटी को पहले की तरह ही निभाएंगे।फिर बाबा हरभजन सिंह रात में नाथूला में अपनी ड्यूटी निभाने लगे।

और रात के समय सैनिकों को अपने आस-पास बाबा की मौजूदगी का अहसास होने लगा।रात को सैनिक बाबा की मौजूदगी में अपने आप को ड्यूटी पर पूरी तरह सुरक्षित महसूस करने लगे इतना ही नहीं बाबा हरभजन सिंह को जो सुविधा जीवित रहते हुए दी जाती थी वे सारी सेवाएं फिर जारी करनी पड़ी।

बाबा हरभजन को ड्यूटी पर तैनात सैनिक के रूप में जब फिर से हर महीने वेतन देने की शुरुआत हुई थी।सेना की इस बात का लोगों ने अंधविश्वास कहकर विरोध किया।तब सैनिक और अधिकारियों ने अपने एक दिन के वेतन से उनकी सैलरी निकालने की पेशकश की।

उनके बंकर की बाकायदा साफ-सफाई होने लगी।उनकी वर्दी प्रेस होना इनकी ड्यूटी का समय रात का तय कर दिया गया और बाकायदा उन्हें छुट्टियों पर भी भेजा जाने लगा था।15 सितंबर से 15 नवंबर से डिब्रूगढ़ अमृतसर एक्सप्रेस से उन्हें कपूरथला उनके घर ले जाया जाता। 

उनकी माँ को दिखाई नहीं देता था पर फिर भी उन्हें 15 सितंबर का बेसब्री से इंतजार रहता था।उस दिन सुबह से ही वो हरभजन सिंह की फोटो को सीने से लगाए बैठे रहती थीं।पुरे गाँव में उनके स्वागत की तैयारी शुरू हो जाती थी।

बाबा हरभजन सिंह जब छुट्टी पर जाते तो ट्रेन में उनके नाम से टिकट भी बुक किया जाता‌।दो सैनिक उन्हें लेकर उनके घर कपूरथला छोड़ने जाते। बाबा की फोटो को उनकी सीट पर रखा जाता था। जब सैनिक बाबा की फोटो और उनके सभी सामान को लेकर स्टेशन पहुँचते तो पूरा गाँव बाबा के जयकारों के साथ उनके स्वागत में मौजूद रहता और फिर वहाँ से सेना की गाड़ी उनकी फोटो और सामान उनकी मां को सौंप आते थे।

दो महीने बाबा हरभजन सिंह अपने गाँव में रहते और वहाँ के लोगों की समस्याएं सुनते,चमत्कार दिखलाते।दो महीने बाद फिर उसी तरह ट्रेन से उसी आस्था और सम्मान के साथ समाधि स्थल वापस लौट आते थे।

हरभजन सिंह जितने दिन वो छुट्टी पर रहते उतने दिन सेना हाइ अलर्ट पर रहती थी और सैनिकों की चौकसी बढ़ा दी जाती।उस समय किसी भी सैनिक को छुट्टी नहीं मिलती थी क्योंकि उस समय उनकी मदद करने के लिए बाबा वहाँ मौजूद नहीं होते थे।
 
बाबा हरभजन सिंह के छोटे भाई बताते हैं कि एक बार रात को उनके मन में आया कि सब कहते हैं बाबा गाँव आ गए हैं अब यहीं रहेंगे।क्या यह सच है? या लोगों के मन का भ्रम है?

वो चारपाई पर बैठे यही सोच रहे थे कि अचानक उन्हें पालतू जानवरों को चारा डालते हुए बाबा हरभजन नजर आए वो अपने भाई को देख मुस्कुराए और आकर उन्हें रजाई उड़ाते हुए बोले ठंड बहुत है ओढ़ ले "क्या सोच रहा है? ज्यादा परेशान मत हो मैं अभी यहीं हूँ" तब से उनमें उनकी आस्था बढ़ गई।

बाबा हरभजन सिंह को सेना से पहले की तरह सैलरी और सुविधाएं मिलती रही और जो नियम सैनिकों के लिए थे वो उन पर भी लागू किए जाते। जब सीमा पर तनाव की स्थिति होती तो उनकी भी छुट्टियाँ भी रद्द कर किसी और समय दी जाती थी और उनके घरवालों को इसकी सूचना दे दी जाती।सब-कुछ ठीक वैसे ही हो रहा था जैसा इनके शरीर छोड़ने से पहले होता था।

बाबा हरभजन के रोज नए चमत्कारों को देखकर सैनिकों में इस कदर आस्था बढ़ी कि उन्होंने एक बंकर को ही मंदिर का रूप दे दिया। बाद में जब उनके चमत्कार बढ़ने लगे और वो जगह विशाल जनसमूह की आस्था का केन्द्र हो गया।

जब भी किसी नए सैनिक की तैनाती होती तो वह सबसे पहले बाबा के दर्शनों को जाता और उनका आशीर्वाद प्राप्त करता है।

कहते हैं अगर आपको स्वास्थ्य संबंधी कोई समस्या है तो उनके मंदिर में तीन दिन तक पानी की बोतल रख दो। तीन दिन में उस पानी में चमत्कारी गुण आ जाते हैं और उस पानी का इक्कीस दिनों तक सेवन से स्वास्थ्य लाभ होने लगता है।

अविश्वसनीय माँ पर जब इतनी मान्यता है तो नकार भी नहीं सकते।

हाँ बेटा शायद इस चमत्कार के कारण ही उनके कमरे में नाम लिखी हुई बोतलें ही बोतलें दिखाई देती हैं।वहाँ एक कापी रखी रहती है जिसमें लोग अपनी परेशानी लिखते हैं और उनका मानना है कि बाबा उनकी समस्या का समाधान भी करते हैं।

भारतीय सैनिक के बड़े-बड़े अधिकारी भी यहाँ मंदिर में आकर दर्शन करते हैं।कोई विश्वास करे या न करें पर बाबा हरभजन सिंह के मंदिर में चीनी सेना भी सिर झुकाती है। 14 हजार फीट की ऊंचाई पर मंदिर बने हुए इस मंदिर में दूर-दूर से लोग यहां बाबा हरभजन सिंह की पूजा करने आते हैं।

उसके बाद आम जनता की सहुलियत को ध्यान में रखते हुए एक मंदिर बनाया गया। ये मंदिर गंगटोक में जेलेप दर्रे और नाथुला दर्रे में करीब 13 हजार फीट की ऊंचाई पर आज भी बना हुआ है।

कहते हैं कि मरने के बाद भी उनकी आत्मा एक घोड़े पर सवार भारत-चीन बॉर्डर की निगरानी करती है।यह सिर्फ भारतीय सैनिकों ने नहीं देखा बल्कि‌ चीनी सैनिकों का भी मानना है कि उन्होंने भी रात में बाबा हरभजन सिंह को घोड़े पर सवार होकर गश्त लगाते हुए देखा है।

वो कैसे दादी?

हुआ यूँ कि रात के समय बाबा हरभजन सिंह गश्त लगाते हुए अक्सर चीनी सीमा में घुस जाया करते थे।वो और किसी को दिखे न दिखे पर चीनी सैनिको को अपनी झलक दिखला देते ।इस बात के लिए चीनी सैनिको ने उनके बारे में चिट्ठी लिखकर भारतीय अधिकारियों से शिकायत भी की थी।

क्या बात है, अद्भुत..! नेहा बोली।

अद्भुत तो है बेटा!

फिर क्या हुआ..?


हाँ चीनी सैनिकों की चिट्ठी में लिखा था कि आपका कोई सैनिक सफेद घोड़े पर बैठकर अक्सर हमारी सीमा के अंदर तक गश्त करता है।आप जल्दी ही यह सब रोके वरना किसी दिन हालात बिगड़ भी सकते हैं।

हमारे अधिकारियों ने उन्हें कहा कि हमें नहीं पता कौन घुड़सवार है आप कहते हो तो उसे पकड़ कर दिखाओ।यह बात जब बाबा को बताई गई तो फिर बाबा हरभजन सिंह चीनी सैनिको को सपना देने लगे तब बाबा हरभजन सिंह की आत्मा के सच को चीनी सेना ने भी स्वीकार कर लिया था।

हरभजनसिंह रात को तैनाती के दौरान कई बार चीन की घुसपैठ के बारे में सपने में आकर भारतीय सैनिकों को जानकारियाँ देकर सतर्क भी किया करते थे और उनकी बात हर बार सच साबित हो जाती थी।

बाबा हरभजन सिंह के मंदिर में उनके जूते, कपड़े और भी सारी जरूरत सामान रखा गया है। बाबा को बाकायदा तीनों समय भोजन परोसा जाता है।शाम होते ही बाबा के मंदिर में किसी को भी नहीं जाने दिया जाता। भारतीय सेना के जवान उनके मंदिर की चौकीदारी करते हैं।

बाबा हरभजन के जूतों की रोज नियमित रूप से पॉलिश की जाती हैं।वहाँ पर तैनात सिपाहियों का कहना है कि आज भी रोज सुबह के समय उनके जूते भी गंदे मिलते हैं और उनके बिस्तर पर सलवटें पर ‌‌दिखाई पड़ती है।

क्या बात कर रही हो माँ..!यह तो सचमुच चमत्कार हो गया।अब तो मेरा भी मन बाबा जी के बंकर और मंदिर देखने को बेचैन हो रहा है।लॉकडाउन खतम हो जाए तो हम सब वहाँ जरूर जाएंगे।

हाँ नेहा ऐसे महान देशभक्त की समाधि पर पुष्प अर्पित करने का सुख कैसे छोड़ सकते हैं? हम जरूर चलेंगे।

सच कहा बच्चों उनकी मौजूदगी को हमारी सेना ही नहीं वहाँ मौजूद चीनी सैनिकों ने माना है और यही कारण है कि दोनों देशों की हर फ्लैग मीटिंग पर एक कुर्सी बाबा हरभजन के नाम की भी रखी जाती है और उस पर उनकी फोटो भी रखी जाती है।


बाबा हरभजन सिंह के साथ जब हादसा हुआ तो वो एक सिपाही के पद पर थे।सेना के नियमों के अनुसार ही उनको सेवा में मौजूद मानकर बाबा हरभजन सिंह को पदोन्नति भी दी गई। बाबा हरभजन सिंह अब सिपाही से कैप्टन बन गए थे।

उनकी मौत को 50 साल ज्यादा समय हो चुके हैं। बाबा हरभजन सिंह भी अब रिटायर होकर अपने घर लौट आए हैं। कहते हैं आज भी बाबा हरभजन सिंह की आत्मा भारतीय सेना में अपना कर्तव्य निभा रही है। इस कारण ही बाबा हरभजन सिंह को नाथू ला का हीरो भी कहा जाता है।

कुछ लोग इस बात को कोरा अंधविश्वास समझते हैं पर सच तो यह है कि आज भी बाबा हरभजन सिंह रात के समय पहरा देते समय अगर कोई सैनिक सो जाता है तो उसे थप्पड़ मारकर जगा देते हैं।यह बात सैनिकों ने खुद कबूली है।

वीर शहीद बाबा हरभजन सिंह की आत्मा को 38 वर्ष की सेवा के बाद 2006 में सेवानिवृत्ति दे दी थी। उसके बाद जब-तक उनकी माता जी जिंदा थी तब तक उनकी पेंशन उन्हें भेजी जाती रही। उनकी माता जी की मृत्यु के बाद यह सब बंद कर दिया गया। कहते हैं सेवानिवृत्ति के बाद भी वो देश सेवा में लगे हुए अपना एहसास करवाते रहते हैं।

बाबा जी का बंकर नाम से प्रसिद्ध मंदिर में लोग आज भी श्रद्धा से शीश झुकाते हैं और उनके पैतृक गाँव में भी उन्हें बड़े ही सम्मान से पूजा जाता है। उनके छोटे भाई ने अपने घर के एक हिस्से को बाबा का मंदिर बना डाला और बाबा हरभजन सिंह की सभी चीजों को हूबहू वैसे ही रखा गया हैं जैसे उनके बंकर में हैं।

सच माँ हमारे देश के वीर सैनिक देश के लिए जीते हैं और देश पर ही मर-मिट जाते हैं। बहुत पावन है हमारे देश की मिट्टी जिसमें ऐसे अदम्य से भरे महान वीर योद्धा जन्म लेते है।देश के इन सच्चे वीर सपूतों के चरणों में मेरा "शत् शत् नमन" नेहा और राजीव बोले।

जय हिन्द जय हिन्द की सेना, दादी माँ मैं भी बड़ा होकर एक सच्चा सैनिक बनूँगा और मैं भी दादी माँ..!जोश में भरकर हर्ष रूही दोनों एक साथ बोले।

बहुत अच्छी बात है बच्चों देशभक्ति से बड़ा कुछ नहीं!अब चलो जाकर सो जाओ,रात बहुत हो गई है, मुझे भी नींद आ रही है।कल फिर दूसरी कहानी सुनाऊँगी।"जी दादी माँ" हर्ष और रूही भी सोने चले गए।

***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार
बाबा हरभजन सिंह के विषय में"न्यूज चैनल"की रिपोर्ट देखी और फिर उस कहानी को अपने शब्दों में आप तक पहुँचाने की छोटी-सी कोशिश की है।

Thursday, June 18, 2020

कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय

यह कहानी है भारतीय सेना के वीर शहीद कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय की।

मनोज कुमार पाण्डेय कारगिल युद्ध के महान योद्धा थे।उनके युद्धकौशल और अदम्य साहस और उनकी शहादत को न देश भूला है न कभी भूलेगा।

मनोज कुमार पाण्डेय का जन्म 25 जून 1975 में उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले के रूधा गाँव में हुआ था।उनके पिताजी का नाम गोपीचन्द्र पाण्डेय तथा उनकी माता का नाम मोहिनी था।

मनोज की शिक्षा लखनऊ के सैनिक स्कूल में हुई थी इसी कारण उनमें अनुशासन के भाव तथा देश प्रेम की भावना कूट-कूटकर भरी हुई थी।

मनोज पाण्डेय बचपन से ही बहुत ही मेधावी छात्र थे। मनोज ने अखिल भारतीय स्तर की छात्रवृत्ति परीक्षा कड़ी मेहनत से पास कर सैनिक स्कूल में दाखिला लिया।स्कूल हो या कॉलेज हर जगह खेल-कूद  में  हमेशा आगे रहते थे।

मनोज जब छोटे थे तो उनकी माँ उन्हें वीर योद्धाओं की कहानियां सुनाया करती थीं। जिसे सुनकर उनमें भी देश के प्रति कुछ कर गुजरने का जुनून बढ़ता गया।

मनोज की माँ ही हमेशा उनकी प्रेरणाश्रोत रही थी। वह हमेशा उन्हें कुछ ऐसा काम करने के लिए प्रेरित करती थी कि लोग उन्हें याद करें तो सम्मान के साथ याद करें।

मनोज की माँ हमेशा ही उनका हौसला बढ़ाया करती थीं। उनकी दिली इच्छा थी,उनका बेटा जीवन के किसी भी मोड़ पर विकट से विकट चुनौतियों का सामना करने में घबराये नहीं और देश का नाम रोशन करे।

बारहवीं पास करने के बाद उनका सपना डॉक्टर या इंजीनियर बनना नहीं था।उनका सपना तो बस आर्मी जॉइन करना था।वह आईआईटी और एनडीए दोनों में अच्छे नंबरों से पास हुए।

मनोज कुमार को प्रतियोगी परीक्षा में सफल होने के बाद पुणे के पास खड़कवासला स्थित राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में दाखिला मिल गया।

वहाँ प्रशिक्षण पूरा करने के पश्चात सेवा चयन बोर्ड ने उनका इंटरव्यू लेने के दौरान उनसे पूछा था,”आप सेना में क्यों शामिल होना चाहते हैं? मनोज ने जवाब दिया,"मैं परमवीर चक्र जीतना चाहता हूँ।"

मनोज कुमार पाण्डेय को न सिर्फ सेना में भर्ती किया गया बल्कि 1/11 गोरखा रायफल में भी कमिशन दिया गया था।सन् 1997 में मनोज कुमार पाण्डेय 1/ 11 गोरखा रायफल्स रेजिमेंट की पहली वाहनी के अधिकारी बने।

मनोज ने जो सपना देखा था वो सच हो गया था। वह बतौर एक कमीशंड ऑफिसर ग्यारहवां गोरखा राइफल्स की पहली बटालियन में पहुँच गए।

उनकी तैनाती कश्मीर घाटी में हुई। ठीक अगले ही दिन उन्होंने अपने एक सीनियर सेकेंड लेफ्टिनेंट पी. एन. दत्ता के साथ एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी को पूरा किया।

लेफ्टिनेंट पी.एन दत्ता एक आतंकवाडी गुट से मुठभेड़ में शहीद हो गए,और उन्हें अशोक चक्र प्राप्त हुआ जो भारत में युद्ध के अतिरिक्त बहादुरी भरे कारनामे के लिए दिया जाने वाला सबसे बड़ा इनाम है।

एक बार मनोज कुमार पाण्डेय को एक टुकड़ी लेकर गश्त के लिए भेजा गया था।और उन्हें वापस लौटने में बहुत देर हो गई थी। इस बात को लेकर सब बहुत चिंतित होने लगे थे।

दो दिन के बाद जब वह इस कार्यक्रम से वापस आए तो उनके कमांडिंग ऑफिसर ने उनसे इस देरी का कारण पूछा, तो उन्होंने जवाब दिया,"हमें हमारी गश्त में उग्रवादी मिले ही नहीं तो हम तब-तक आगे चलते ही चले गए, जब तक हमने उनका सामना नहीं कर लिया।"

इसी तरह, जब इनकी बटालियन को सियाचिन में तैनात होना था,तब मनोज युवा अफसरों की एक ट्रेनिंग पर थे। वह इस बात को लेकर परेशान हो रहे थे कि इस ट्रेनिंग की वजह से वह सियाचिन नहीं जा पाएँगे।

जब इस टुकड़ी को कठिनाई भरे काम को अंजाम देने का मौका मिला, तो मनोज ने अपने कमांडिंग अफसर को लिखा कि अगर उनकी टुकड़ी उत्तरी ग्लेशियर की ओर जा रही हो तो उन्हें 'बाना चौकी' दी जाए और अगर कूच सेंट्रल ग्लोशियर की ओर हो, तो उन्हें 'पहलवान चौकी' मिले।

यह दोनों चौकियाँ बहुत कठिन थी।यहाँ तैनाती वीरों से बहुत हिम्मत और अटल इरादों की माँग करतीं हैं। देशप्रेम से भरे मनोज कुमार पाण्डेय यही चाहते थे।आखिर उनका सपना पूरा हुआ। मनोज कुमार पांडेय को लम्बे वक्त के लिए 19700 फीट ऊँची 'पहलवान चौकी' पर डटे रहने का अवसर मिला।

यह चौकी जहाँ मौजूद थी, वहाँ की परिस्थितयां सहज नहीं थी।वहाँ की ठंड और बर्फीली हवाओं में ज्यादा देर तक खड़ा तक होना मुश्किल था।

मनोज के लिए यह एक कड़ी चुनौती थी, लेकिन मनोज घबराये नहीं, वह पूरे जोश, और जूनून के साथ अपनी पोस्ट पर तीन महीने तक अपने साथियों के साथ अपना कर्तव्य निभाते रहे।

सियाचिन की चौकी से मनोज कुमार पाण्डेय की टुकड़ी अभी वापस ही लौटकर आई थी कि तभी 3 मई 1999, को कारगिल युद्ध के संकेत मिलने लगे। मनोज पाण्डेय ने आराम की बात भूलकर देश के दुश्मनों को धूल में मिलाने के लिए तैयार हो गए।

मनोज कुमार पाण्डेय वो पहले अफसर थे जिन्होंने खुद आगे बढ़ कर कारगिल के युद्ध में शामिल होने की बात कही,अगर मनोज कुमार चाहते तो सियाचिन से हाल ही वापसी की वजह से उन्हें छुट्टी भी मिल सकती थी।

मनोज कुमार पाण्डेय के दिल में देश प्रेम की लहरें हिलोरें ले रही थीं।वो तो जैसे इस मौके के इंतजार में बैठे ही थे. उन्होंने आगे बढ़ कर नेतृत्व किया।

करीब दो महीने तक चले ऑपरेशन में कुकरथाँग, जूबरटॉप जैसी कई चोटियों को विरोधियों के कब्ज़े से आजाद कराया.

वो खुद इस युद्ध के लिए आगे आए और अपने जीवन के सबसे निर्णायक युद्ध के लिए 2/3जुलाई 1999 को निकल पड़े।

उनकी बटालियन की बी कंपनी को खालूबार फतह करने का जिम्मा दिया गया।वहाँ ऊँचाई पर दुश्मनों के बंकर बने हुए थे और नीचे हमारे वीर जांबाज।

दिन में चोटी पर चढ़ाई संभव नहीं थी, इसके लिए रात की रणनीति बनाई गई।रात को अंधेरा गहराते ही मनोज कुमार पाण्डेय की टुकड़ी ने पाकिस्तानी सेना पर हमला शुरू किया।

जैसे-जैसे ही उनकी कम्पनी आगे बढ़ रही थी। वैसे ही उनकी टुकड़ी को दोनों तरफ की पहाड़ियों से दुश्मनों की गोलियों की जबरदस्त बौछार का सामना करना पड़ रहा था।

वहाँ ऊपर दुश्मनों ने अपने बंकर बना रखे थे।संकरे रास्ते से होते हुए मनोज ‘जय महाकाली,आयो गोरखाली’ का नारा लगाते हुए दुश्मनों से जा टकराए।

चारों तरफ से फायरिंग हो रही थी।अब मनोज का पहला काम उनके बंकरों को तबाह करना था। जिसके लिए उन्होंने तुरंत हवलदार भीम बहादुर की टुकड़ी को आदेश दिया कि वह दाहिनी तरफ के दो बंकरों पर हमला करके उन्हें नाकाम कर दें।

मनोज पाण्डेय ने बाईं तरफ के चारों बंकरों को नष्ट करने का जिम्मा खुद अकेले पर ले लिया।मनोज ने निडर होकर हमला करना शुरू कर दिया था।

उन्होंने एक के बाद एक चार दुश्मनों को मार गिराया।पर इस जंग में एक गोली मनोज की कमर पर लग गई और दूसरी उनके कंधे पर फिर भी वह रुके नहीं,मनोज के हौसले फिर भी बुलंद थे।

अब उनका लक्ष्य तीसरा और चौथा बंकर था।मनोज एक के बाद एक बंकरों को तबाह करते हुए आगे बढ़ रहे थे। वे अपने घावों से बहते रक्त की परवाह किए बगैर वह चौथे  और अंतिम बनकर की ओर बढ़े।उन्होंने जोर से गोरखा पल्टन की जय का नारा लगाया और चौथे बंकर पर एक हैण्ड ग्रेनेड फेंक दिया।

उनके हाथ से फेंके हुए ग्रेनेड का अचूक निशाना ठीक चौथे बंकर पर जाकर लगा और एक क्षण में उसे तबाह कर गया लेकिन मनोज कुमार पाण्डेय भी उसी समय तक बुरी तरह घायल हो चुके थे।

दुश्मन की मशीन गन से निकली एक गोली मनोज कुमार के माथे पर लगी।घायल अवस्था में भी मनोज ने अपने पास रखी खुखरी निकाली और काल बनकर दुश्मन पर टूट पड़े।

मनोज कुमार ने अपनी खुखरी से ही चार पाकिस्तानी सैनिकों को वहीं मौत के घाट उतार दिया और उस बंकर पर कब्जा जमा लिया।

घायलावस्था में भी मनोज का अदम्य साहस देखकर उनकी टुकड़ी के अन्य सैनिकों का हौसला दुगना हो गया। और वे पूरे जोश के साथ पाकिस्तानी सेना पर हमला करने लगे थे ।

माथे पर गोली लगने से अत्याधिक खून बह जाने की कारण से मनोज कुमार अंतिम बंकर पर पस्त होकर गिर गए थे।पर फिर भी अपने साथियों से खुद को छोड़कर आगे बढ़ने के लिए कह रहे थे।

मनोज कुमार पाण्डेय की अगुवाई में उनकी टुकड़ी ने दुश्मन के 11 जवान मार गिराए थे।छह बंकर भारत के कब्जे में थे।

उसके साथ ही हथियारों और गोलियों का बड़ा जखीरा भी कैप्टन मनोज कुमार की टुकड़ी ने कब्जे में ले लिया था।उसमें एक एयर डिफेंस गन भी थी।

वह अपने साथियों से आखिरी दम तक कहते रहे थे। मेरी चिंता मत करो मैं ठीक हूँ। तुम लोग आगे बढ़ो किसी को भी छोड़ना नहीं, मनोज अपनी आँखों से अपने मिशन को पूरा होते हुए देखना चाहते थे।

कैप्टन मनोज की शहादत देख उनके साथी क्रोध से भर दुश्मन पर टूट पड़े। कैप्टन मनोज कुमार ने अपने साथियों का मरते दम तक साथ दिया।

उन्होंने एक बार फिर उसी हालत में भी बंदूक संभाली थी।पर उनके शरीर ने उनका साथ नहीं दिया।छह बंकर कब्जे में आ जाने के बाद खालूबार भारत की सेना के अधिकार में आ गया था।

आँखें बंद करने से पहले कैप्टन मनोज पाण्डेय खालुबार पोस्ट पर तिरंगा लहरा चुके थे।इस अविस्मरणीय अवसर की खुशी के साथ देश और उनके साथियों को अपने युुवा कैैैैैप्टन को शहीद होने का भी दुख था।

इस संघर्ष में विजयी भारत ने अपने चौबीस वर्षीय वीर कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय को हमेशा के लिए खो दिया था।

पाकिस्तान के साथ कारगिल युद्ध के सबसे कठिन मोर्चों में एक मोर्चा खालूबार का था। भारत ने इस युद्ध में विजय हासिल की और इतिहास के पन्नों पर इस वीर योद्धा का नाम स्वर्णिम अक्षरों में लिखा गया।

भारत के तिरंगे की शान को बुलंदी पर पहुँचाने के लिए देश के इस वीर योद्धा के अदम्य साहस को देखते हुए मरणोपरांत उन्हें सबसे बड़ा वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र दिया गया।

कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय को डायरी लिखना बहुत पसंद था। वे युद्ध के बीच में भी डायरी लिखा करते थे। उनकी डायरी में लिखे विचारों में देश के प्रति प्रेम और सम्मान खूब झलकता था।

मनोज को बाँसुरी बजाना भी बहुत पसंद था।वो कहीं भी जाते पर बाँसुरी साथ रखा करते थे।जब मन करता, उसे बजा लेते, फिर वापस अपने सामान के साथ रख देते थे।

मनोज कुमार को पढ़ने का बड़ा शौक था।वो हर तरह की जानकारी रखने की चाहत रखते थे।यही वजह थी कि वे एस्ट्रोलॉजी और पामिस्ट्री के ज्ञाता भी रहे।

मनोज कैंप में फुरसत के क्षणों में अपने साथियों के हाथ देखकर भविष्य बताया करते थे।

उनके पिताजी ने एक इंटरव्यू में कहा था कि उन्हें मनोज की पढ़ाई पर ज्यादा खर्च नहीं करना पड़ा।उनका बेटा इतना मेधावी था कि स्कॉलरशिप हासिल करके अपना इंतजाम कर लेते था।
डायरी लिखने के शौकीन मनोज ने अपनी डायरी में लिखा था,"अगर मौत मेरा शौर्य साबित होने से पहले मुझ पर हमला करती है तो मैं अपनी मौत को ही मार डालूंगा।"

कारगिल युद्ध पर बनी फिल्म में सर्वोच्च वीरता पदक परमवीर चक्र से सम्मानित कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय का किरदार अजय देवगन ने निभाया। कैप्टन मनोज के शौर्य की कहानी, उनके जीवन से जुड़ी अहम बातें गूगल,ई न्यूज पत्रिका,यूटुयूब हर जगह मौजूद है।

वतन की शान की खातिर खुद को न्यौछावर करने वाले देश के महान योद्धा, वीर सपूत मनोज कुमार पाण्डेय की शहादत को मेरा नमन।जय हिन्द जय भारत।

***अनुराधा चौहान'सुधी'***

चित्र गूगल से साभार