कैसा फिजाओं
में जहर घुला
मौसम भी
सहमा सहमा हुआ
कभी गूंजती थी
इस गुलशन में
किलकारियां
मासूम परियों की
अब सब उजड़ा उजड़ा है
गुलशन में
उदासी का पहरा है
धुंआ धुंआ सी
होती जिंदगी
प्रीत कहीं
खोती सी दिखती
संवेदनाएं भी
दम तोड़ रही
अपने पराए की
मारामारी
भाईचारे ने
जान गंवा दी
कब लौटेंगी
फिर से बहारें
कब हंसी की
गूंजे आवाजें
अब कर्म
हमें ही करना है
इस गुलशन को
महकाना है
***अनुराधा चौहान***
में जहर घुला
मौसम भी
सहमा सहमा हुआ
कभी गूंजती थी
इस गुलशन में
किलकारियां
मासूम परियों की
अब सब उजड़ा उजड़ा है
गुलशन में
उदासी का पहरा है
धुंआ धुंआ सी
होती जिंदगी
प्रीत कहीं
खोती सी दिखती
संवेदनाएं भी
दम तोड़ रही
अपने पराए की
मारामारी
भाईचारे ने
जान गंवा दी
कब लौटेंगी
फिर से बहारें
कब हंसी की
गूंजे आवाजें
अब कर्म
हमें ही करना है
इस गुलशन को
महकाना है
***अनुराधा चौहान***
बहुत बहुत खूब
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आदरणीय
Deleteबहुत सुन्दर रचना सखी
ReplyDeleteधन्यवाद सखी
Deleteसुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीय
Deleteसुंदर लिखा है
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीय
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीय
Deleteवाह!बहुत सुंदर !!चलो मिलकर महकाएं गुलशन को ।
ReplyDeleteधन्यवाद शुभा जी
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