Saturday, June 29, 2019

दिल मेरा नाज़ुक दर्पण-सा

दिल मेरा नाज़ुक दर्पण-सा
हाल दिलों के न समझ सका
वार लगे कुछ दिल पर ऐसे
चोट से उनकी न सँभल सका
किर्चें होकर बिखरा फिर भी
अक्स तेरा ही उभरता रहा
दिल मेरा नाज़ुक दर्पण-सा
ठेस लगी तो टूट गया
भूले से भी न भूलेंगे यह 
झूठे तेरे कसमें वादे 
बेवफ़ाई के किस्से कहते रहेंगे
कब तक सँभालें दिल को अपने
टूट गए जो देखे सपने
होता ग़र जो मन दर्पण-सा
पढ़ लेता यह झूठी वफ़ाएँ
हुआ दीवाना इस सूरत का
हाल दिलों का जान न सका
दिल मेरा नाज़ुक दर्पण-सा
ठेस लगी तो टूट गया
मोहपाश में बँधा कुछ ऐसे
अच्छा-बुरा न सोच सका
दिल मेरा नाज़ुक दर्पण-सा
ठेस लगी तो टूट गया
अब न छलना किसी को ऐसे
मन रखना दर्पण के जैसे
सह न सके कोई घाव यह दिल के
रिसते रहेंगे जख्म यह दिल के
भोले चेहरे में छुपा हुआ यह
पत्थर दिल पहचान न सका
दिल मेरा नाज़ुक दर्पण-सा
ठेस लगी तो टूट गया
दिल मेरा नाज़ुक दर्पण-सा
***अनुराधा चौहान***

Friday, June 28, 2019

बालमन का डर

हम बच्चों को उनकी शैतानियों को रोकने के लिए किसी न किसी तरह का डर दिखाकर डरा देते हैं पर हम यह नहीं जानते कि कभी-कभी यह डर बेहद डरावना रूप ले लेता है और उसका अंजाम कितना ख़तरनाक हो सकता है।
मेरे बचपन की एक सच्ची घटना है,मैं बहुत छोटी थी यही कोई नौ या दस साल की बहुत शैतान थी स्कूल ज्यादा दूर नहीं था तो मोहल्ले के सारे बच्चे,दीदी,भैया हम सब साथ ही खूब मस्ती करते हुए स्कूल जाते थे।
रास्ते में एक गली पड़ती थी वहाँ एक घर में मानसिक रूप से विक्षिप्त लड़की अपने माता-पिता के साथ रहती थी शरीर से तो बाईस,तेईस साल की उम्र की पर दिमाग से नन्ही बच्ची। यह बात मुझे बड़े होने पर समझ आई तब तो मैं खुद एक बच्ची थी।
हम बच्चे स्कूल से छूटते तो उधम मचाते हुए जब भी गली से निकलते हमारी आवाज़ से वो जोर-जोर से चिल्लाने लगती थी शायद हम लोगों के साथ वो भी खेलना चाहती थी आखिर मन से तो बच्ची ही थी पर हम बच्चे यह सब कहाँ समझते उसकी आवाज़ की नकल करते भागते थे।
एक दिन स्कूल से लौटते समय उस घर में रहने वाली आंटी बाहर खड़ी मिली वो हम लोगों का इंतज़ार कर रही थी हमारे पास आते ही हम लोगों को रोक कर डराते हुए बोली यहाँ से जब भी निकला करो तो चुपचाप निकला करो... क्यों?? हम बच्चों ने एक साथ पूछा। इस पर आंटी ने कहा यह जो खिड़की दिख रही है ना,उसमें भूतनी रहती है वो तुम बच्चों की आवाज़ से गुस्सा होकर चिल्लाने लगती है इसलिए चुपचाप निकला करो वरना वो तुम लोगों को मार डालेगी ।
हम बच्चे उन आंटी की बात सुनकर बहुत डर गए फिर सब समूह बनाकर स्कूल आने-जाने लगे।
एक दिन किसी कारण से मैं थोड़ा पीछे रह गई और सब लोग आगे निकल गए वैसे पहले भी कई बार घर अकेली आ चुकी थी ज्यादा दूर नहीं था घर बस दो गली छोड़कर ही था। पर उस दिन बहुत डर लग रहा था।
एक तो अकेली ऊपर से आंटी की कही बातें याद आ रही थी डर भी बहुत लग रहा था गली से निकलते हुए निगाहें खिड़की पर थी, धड़कनें तेज थी और उस दिन किस्मत भी धोखा दे गई जैसे ही खिड़की के सामने से निकलने वाली थी कि  डरावनी फिल्मों के जैसे अचानक खिड़की खुली और वो दीदी मुझे देखते ही जोर-जोर से चिल्लाने लगी शायद उन्हें मेरे साथ खेलना था।
और जैसे ही मैंने यह नजारा देखा ऐसी भागी सीधे घर जाकर रुकी... डर के मारे रात भर तेज बुखार चढ़ा रहा नींद में भी डर कर चीखने लगती थी उस दिन के बाद इतना डर गई कि स्कूल जाने को ही तैयार नहीं थी मम्मी ने बहुत समझाया उन दीदी से मिलवाया फिर भी मेरी जिद्द पर दूसरे स्कूल में जो घर के एकदम पास था उसमें मेरा दाखिला करवाया।उस हादसे को मैं आज भी नहीं भूली उस दिन की याद आज भी बड़ी डरावनी लगती है।
 ***अनुराधा चौहान***

Tuesday, June 25, 2019

तपिश मिटे अब

"आस का पँछी"इत-उत डोले
आसमां में मेघ टटोले
"नीला आकाश"दिखे सूना
"आखिर क्यों"सतावे बदरा
"दिल"को क्यों तरसावे बदरा
आ जाओ अब छा जाओ
मेघों पानी बरसा जाओ
हो"तेरी मेहरबानियाँ"अब
"बारिश"जम कर हो जाने दो
प्रभू"सावन को आने दो"
रिमझिम फुहारों के संग झूमकर
तन-मन को भीग जाने दो
मेघ मल्हार गाए झूमकर
टापुर टुपुर टपके बूँदे
सुन लो"धरती कहे पुकार के"
अब बरखा बहार आ जाओ
थक गई"आँखें" राह निहारे
"बादल"आएँ घिर-घिर जाएँ
"दामिनी" तड़के "दिल"घबराए
"आशा"की ज्योति मन में जगी
बैरी पवन फिर छलने लगी
"आँख-मिचौली"बहुत हुई अब
हो"बरसात"तो तपिश मिटे अब
***अनुराधा चौहान***

दो किनारे से हम

तुम नदिया की बहती धारा सी
और मैं ठहरे किनारे-सा
मिलकर भी कभी मिल न सकें
फिर भी सदा संग-संग चलें

तुम चंचल पुरवाई पवन
मैं तरुवर-सा अडिग खड़ा
महसूस प्रीत के अहसास मुझे
फिर भी खड़ा हूँ सूने तट-सा

नाज़ुक कली-सी कोमल हो
मैं फिरता आवारा भँवरे-सा
मन की भाषा समझ सकूँ ना
उड़ता फिरूँ नादान परिंदे-सा

धरती गगन-सा यह मेल रहे
मिलकर भी मन से मिल न सकें
नदिया के किनारों की तरह
विचारों पर अपने अड़े खड़े
***अनुराधा चौहान***

Saturday, June 22, 2019

अद्भुत मिलन

निशा गहराई शमा जली
पतंगे से मिलने को बेचैन हुई
शमा की लौ का दिवाना
उड़ चल पतंगा आवारा

अपने हस्र की कोई फ़िक्र नहीं
शमा से मिलने की लगन लगी
लिपट गया जा शमा से गले
प्रीत में उसकी धधक कर जला

यह कैसा प्रेम यह कैसा मिलन
इक पल का यह अद्भुत मिलन
शमा के प्रेम की ज्वाला में जला
हो गया पतंगा शमा से जुदा 

बिछड़ी शमा प्रखर हो जली
दुनिया को सीख यही देती रही
प्रेम की उमर छोटी हो भले ही
आशा की किरण ने बुझने देना

हो चिराग तले अँधेरा भले
उजियारा कर औरों के लिए
अपने लिए तो हर कोई जिए
औरों के लिए कुछ पल तो जी
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Tuesday, June 11, 2019

घर एक मंदिर

संस्कारों की नींव पर 
आदर्शों की मजबूत दीवारें
हिला न पाए कोई बाधाएँ
प्रेम विश्वास जड़ें जमाए
बड़ों का आशीष अमृत बरसाए
जड़ों की मजबूत पकड़
बाँधे रिश्तों को बड़े प्यार से
नैतिक नियमों का मूल्य सिखाएँ
इंसानियत का मोल बताएँ
स्त्री का सम्मान जहाँ पर
बेटी की खुशियाँ वहाँ पर
प्रेम जिसका आधार प्रथम हो
बेटों को संस्कार दिए हों
बचपन जहाँ हँसे खुलकर
माँ के पायल की छन-छन
भाभी की चूड़ियों की खनक
बहनों की खुशियाँ झलकें
घर में सदा संगीत बनकर
वह घर सदा मंदिर सा लगे
जहाँ हर रिश्ते को सम्मान मिले
यह सीख नहीं सच्चाई है
बिन रिश्तों के किसने खुशियाँ पाईं है
अमूल्य निधि यह जीवन की
बड़े जतन से रखना सँभालकर
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Sunday, June 9, 2019

तेरी गलियों में

आज मुद्दतों बाद गुज़रे हम
फिर से तेरी गलियों में
तूने कहा था मत आना 
रोक लिए कदम नहीं आए हम
पर इस पागल दिल को कैसे समझाएँ
देखने तेरी झलक हो रहा था पागल
सोचा तुझे भी तो इंतज़ार होगा
शायद तेरे दिल में मेरे लिए
अभी भी वहीं प्यार होगा
कह दिया नहीं आना 
वो तेरी नाराज़गी रही होगी
मुझे देखने के लिए तू भी बेचैन होगी
गलतफहमी थी यह मेरी तुझे लेकर
तू खुश थी बहुत मुझे गम देकर
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Thursday, June 6, 2019

बैरी पवन दे गई धोखा

उमड़-घुमड़ के आए बदरा
नीले अम्बर पर गए बिखर
काली घटाएँ मन हर्षाएँ
शीतल पवन तन-मन सहलाए
दामिनी तड़के बार-बार
वर्षा की उठी मन में आस
अब बरसे अब बरसे
नयना दर्शन को तरसे
बैरी पवन दे गई धोखा
झूम झूमकर चले पवन हिलोरें
जाने कहाँ बादलों को ले गए
दिखने लगा नीला आकाश
सूरज निकला मुस्कान सजाकर
जैसे जीता हो जंग कोई
बिखर गई धूप सुनहरी
तीखी तपन बदन झुलसाए
सबके मन लगे कुम्लहाने
अब तो बरस जा न करा इंतज़ार
गर्मी से हो रहा हाल-बेहाल
मेघराज कृपा करो आकर
काली घटाओं का पहनकर ताज
बदरा बरसे झूम-झूमकर
गर्मी से कुछ मिले निजात
***अनुराधा चौहान***

Sunday, June 2, 2019

यही ख़राबी थी मुझमें

हर समय खुद को भूला 
औरों के लिए जीती रही
अपनी खुशियों को छोड़ 
सबकी खुशियाँ चुनती रही
न दिन देखा न रात देखी 
खड़ी रही सबके लिए
डॉक्टर बनी,नर्स बनी
सारे घर की नौकरानी बनी
शिक्षिका बन बच्चों को 
जीवन का पाठ पढ़ाया
पति की प्रेयसी बन
जीवनसंगिनी का धर्म निभाया
फिर भी नहीं थी 
मैं किसी के काम की
नज़रों में सबके थी
ज़िंदगी मेरी आराम की
मेरे काम की करें अनदेखी
फिर भी मैं करती 
उन सबके मन की
बस यही ख़राबी थी 
शायद मुझमें
सोचा नहीं मैंने 
कभी अपने लिए
ज़रूरतें पूरी हुई 
सब निकल पड़े अपने रस्ते
आज़ अकेले होकर जाना मैंने
मतलब के थे सारे रिश्ते
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार