हम हमेशा भूल जाते हैं, हमारे ऊपर भी कोई दिव्य शक्ति है,जो हमें हमारी गलतियों की कभी भी सजा दे सकती है। प्रकृति के निरंतर दोहन से आज हमें सबसे भयंकर सजा मिल रही है। एक सूक्ष्म वायरस की चपेट में आकर मानव जीवन में हाहाकार मचा हुआ है।
प्रकृति से छेड़छाड़ और अपनी सभ्यता-संस्कृति भूलने और गलत खान-पान का नतीजा सामने है।नदियाँ दलदल बन रही हैं और हरी-भरी धरती बंजर।
आज हम खुद इस मौत के तांडव के जिम्मेदार बने हैं।मानव की सबसे समृद्ध बनने की लालसा ही आज सम्पूर्ण विश्व के समक्ष महामारी के रूप में तांडव कर रही है।
प्रकृति एक माँ की तरह हमें बहुत कुछ देती है और बदले में मानव से बस थोड़ा रख-रखाव और प्यार माँगती है।परन्तु जब क्रोधित होकर लेना शुरू करती है तो फिर होता है महाविनाश का आरंभ ।मानव सदा से ही संघर्षशील है,हर विपत्ति का सामना करने में सक्षम है।
परंतु आज मानव ने हमारी हरी-भरी प्रकृति को इतना प्रदूषित कर दिया है कि प्रकृति के विध्वंसकारी रूप उभर कर सामने आने लगे हैं।यह किसी से छिपा नहीं है कहीं बाढ़ ज़िंदगियाँ तबाह कर रही तो कहीं भूकम्प और हवा में घुली विषैली गैसें जीवन में विष घोल रहीं है।
जैसे मानव को जीने के लिए जल,हवा, हरियाली तीनों की जरूरत है वैसे ही प्रकृति को मानव की।मानव और प्रकृति के बीच बहुत गहरा सम्बन्ध है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।प्रकृति तो अपना धर्म निष्ठा से निभा रही है पर मानव सब कुछ भूल प्रकृति के मूल स्वरूप को ही बिगाड़ने पर आमादा है।मनुष्य जब तक प्रकृति को सहेजता रहा सुखी और सम्पन्न रहा प्रकृति से अनावश्यक खिलवाड़ किया तो उसका गुस्सा भूकम्प, सूखा, बाढ़, और कोरोना महामारी का रूप लेकर लोगों को काल का ग्रास बनाने लगा।
हमें शुरू से ही बताया गया है कि हरियाली के बिना प्रकृति मृत है और प्रकृति के बिना हम.! इसलिए स्वच्छ हवा पानी के लिए आम, आँवला, पीपल,वट वृक्ष और नीम के वृक्ष लगाने का महत्व बताया गया है।भारतीय संस्कृति में प्रकृति के कण-कण में देवताओं का वास माना गया है। इतना ही नहीं हमारी संस्कृति में वृक्षों को देवशक्तियों का प्रतीक मानकर सहेजना सिखाया गया है। विभिन्न प्रकार के तीज-त्योहार हमारी परंपरा का हिस्सा रहे हैैं।हिन्दू धर्म में प्रकृति पूजन की मान्यता सदियों से चली आई है।
सनातन धर्म में अनेकों उत्सव ऐसे हैं जो प्रकृति के अनुरूप मनाए जाते हैं वसंत पंचमी हो या एकादशी, हरियाली तीज हो या गंगा दशहरा और गोवर्धन पूजा,वट सावित्री,गणेश चतुर्थी व आँवला नवमी सभी पर्वों में पेड़-पौधों, नदी-पर्वत, ग्रह-नक्षत्र, अग्नि-वायु सहित प्रकृति के विभिन्न रूपों की पूजा-अर्चना की जाती है।
भाद्रपद माह की शुक्लपक्ष की चतुर्थी को गणपति बाप्पा की स्थापना और पूजा का पर्व महाराष्ट्र राज्य की सभ्यता और संस्कृति का एक अभिन्न अंग है।परंतु आज गणपति बाप्पा की स्थापना, पूजा और विसर्जन सिर्फ महाराष्ट्र तक सीमित न रहकर संपूर्ण देश में खूब धूमधाम के साथ मनाया जाता है।
चतुर्थी तिथि को' गणपति बाप्पा मोरया! मंगलमूर्ति मोरया! के उद्घोष के बीच बाप्पा की प्रतिमा की खूब धूमधाम के साथ स्थापना की जाती है।न सिर्फ बड़े बड़े पण्डालों में अपितु हर गली, हर घर में छोटे - बड़े सभी आकार की बाप्पा की प्रतिमा की स्थापना कर भक्तिभाव से पूजा की जाती है।वैसे तो बाप्पा चतुर्थी को हमारे मध्य विराजते हें और पूरे ग्यारह दिन हमारे बीच ,हमारे साथ रहकर अनंत चतुर्दशी के दिन वापस अपने धाम लौट जाते हैं।परंतु घर- घर में श्रद्धालु अपनी सुविधानुसार कभी डेढ़ दिन,तीन दिन, पाँच दिन और सात दिन में भी बाबा की विदाई कर देते हैं।
परंतु अधिकांश बड़े- बड़े सार्वजनिक पण्डालों में ग्यारहवें दिन ही बाप्पा के विसर्जन की परम्परा देखने में आती है।'विसर्जन'-- ये संस्कृत भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है---' पानी में विलीन होना।'ये एक सम्मानसूचक शब्द है,इसलिए पूजित प्रतिमाओं को ससम्मान विदाई देने के अर्थ में इस शब्द का प्रयोग होता है।
गणपति स्थापना,पूजा और विसर्जन आज एक बहुत बड़ा संदेश हमें देते हैं।
ईश्वर निराकार हैं।जब हम अपनी आस्था को मूर्त रूप देने के लिए प्रभु को एक आकार देते हैं तो उन्हें भी प्रकृति ( मिट्टी) का सहारा लेना पड़ता है।
गणपति विसर्जन हमें ये सीख देता है कि जो हमने प्रकृति से लिया है उसे एक न एक दिन वापस लौटाना ही होगा।प्रकृति से निर्मित आकार अंततोगत्वा प्रकृति में ही विलीन हो जाना है।
गणपति विसर्जन की जो मूल परंपरा है, पर्यावरण हित को ध्यान में रखकर ही उसकी नींव रखी गई है।मूर्ति के विसर्जन के साथ अनेकों ऐसे तत्व पानी में घुलते हैं जो पानी को शुद्ध करते हैं।हल्दी ,कुमकुम एंटीबायोटिक होते हैं जिनसे जल स्रोतों का पानी स्वच्छ होता है।लंबे समय से नदियों, तालाबों और पोखरों का रुका पानी भी विसर्जन में डाली जाने वाली सामग्री से शुद्ध हो जाता है।विसर्जन की प्रक्रिया में प्रचुर मात्रा में डाला जाने वाला अक्षत जलीय जीवों के भोजन की व्यवस्था करता है।धूप,चंदन आदि प्रयुक्त सामग्रियाँ पर्यावरण को स्वच्छ करने में अपना बहुत बड़ा योगदान देती हैं।
गणपति बाप्पा मोरया,
पुढच्या वर्षी लवकर आ।।
के नारे के बीच बाप्पा की विदाई ये संदेश देती है खाली हाथ आये थे और खाली हाथ ही जाना है।
प्रकृति चक्र के अनुसार हर आकार को एक दिन प्रकृति में ही मिलना है।
पर आज इस इतनी सुन्दर परंपरा का स्वरूप कुछ धनलोलुप लोगों ने विकृत सा कर दिया है।अधिक पैसा कमाने की चाहत में प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनाई गई और कृत्रिम रंगों से रंगी गई मूर्तियाँ पर्यावरण को बहुत हानि पहुँचा रही हैं।हमें इस ओर ध्यान देना होगा।यदि प्रकृति को बचाना है तो गणपति विसर्जन के पुरातन परम्परागत स्वरूप को ही अपनाना होगा।
मानव को शायद अभी भी अपनी गलतियों का अहसास नहीं ,तभी तो भौतिक विकास के पीछे पड़ा हुआ है। अति प्रगतिशील बनने की होड़ में दुनिया कहाँ पहुँच गई।आज ऐसा कोई देश नहीं है जो कोरोना संकट पर मंथन नहीं कर रहा हो। घरों में कैद भारतीय आज इसी बात से चिंतित हैं कि आखिर कब हम पहले की तरह अपने पर्वों को धूमधाम से मना पाएंगे?
प्रकृति को हमने हद से ज्यादा नुकसान पहुँचाने की गलती की पर फिर भी प्रकृति हमें नुकसान पहुँचाने की जगह आज भी हमें पूरी निष्ठा के साथ ज़िंदगी देने में लगी हुई है। प्राचीन काल से ही हमारे देश में प्रकृति के साथ संतुलन करके चलने के संस्कार मौजूद हैं। हमारे सनातन धर्म की हर परम्परा में कोई न कोई वैज्ञानिक रहस्य छिपा हुआ है।हमारे ऋषि-मुनियों ने अपने ग्रंथों में कहा है कि पृथ्वी का आधार जल और वन है। और शायद इसलिए ही हमारे त्योहार भी प्रकृति से संबंधित हैं। बड़े-बुजुर्ग हमेशा कहते थे कि अगर पीने के लिए जल चाहिए तो उसके लिए वृक्षों का होना जरूरी है और जल ही जीवन है। यही हमें बचपन से सिखाया गया कि यह प्रकृति हमारी माँ है जो हमें पालती पोसती है। अगर प्रकृति हरी- भरी रहेगी तो हम भी जीवन का सुख लेते रहेंगे।
*अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित*
चित्र गूगल से साभार
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