Tuesday, September 10, 2019

छलावा

बेचैन मन को चैन नहीं,
तो जग अंधियारा दिखता है।

चिंता-फिकर का रोग लगा,
मधुवन भी उजड़ा दिखता है।

डला आँखों पे झूठ का परदा,
अब अपनापन कहाँ दिखता है।

राग-द्वेष को मन में बसा लिया,
फिर मन का प्रेम कहाँ दिखता है।

चैन की बंशी अब कहाँ बजे,
जब भाग्य ही रूठा दिखता है।

पल दो पल का जीवन मेला,
इंसान खिलौने-सा यहाँ नचता है।

रिश्तों का बंधन रिक्त हो रहा,
सिर्फ दिखावा सिर उठाए चलता है।

सच्चाई से मुँह मोड़कर इंसान,
चादर झूठ की ओढ़े फिरता है।

किसी की बात न सुनना "अनु" तुम,
यहाँ हर कोई छलावा-सा दिखता है।
***अनुराधा चौहान***

11 comments:

  1. धन्यवाद यशोदा जी

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  2. वाह बहुत सुंदर सृजन सखी ।
    यथार्थ।

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  3. क्या खूब सत्य ल‍िखा है र‍िश्तों के ल‍िए आपने, अनुराधा जी परंतु आपकी कहान‍ियां भी उतनी ही दमदार है , मर्मस्पर्शी ....वाह

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    1. आपकी सुंदर प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीया

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  4. किसी की बात न सुनना "अनु" तुम,
    यहाँ हर कोई छलावा-सा दिखता है।.....भावपूर्ण !

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    1. हार्दिक आभार आदरणीया

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  5. अति उत्तम ,सत्य की राह आसान नहीं है

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    1. जी हार्दिक आभार सखी 🌹

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