मिथ्या यह जीवन
मिथ्या इसकी माया
जिसको अब तक
कोई समझ नहीं पाया
मिथ्या है यह काया
जो सबके मन भाया
मौत के सच को
कोई समझ नहीं पाया
व्यर्थ के झगड़ों में
क्यों जीवन को खोते
निकल गया समय तो
फिर रह जाओगे रोते
समय रहते करलो
कुछ कर्म तुम ऐसे
मिट जाए भले यह तन
फिर भी रहो जीते
जीवन की याद रखो
इस कड़वी सच्चाई को
बनी है यह काया
पल में मिट जाने को
क्यों तेरे मेरे में
समय को हम खोते हैं
जब मिटने आता यह तन
फिर हम रोतें हैं
मिथ्या यह जीवन
स्वीकार करलो यह सच्चाई
करो अपने साथ
तुम औरों की भी भलाई
***अनुराधा चौहान***
आपकी लिखी रचना "मुखरित मौन में" शनिवार 17 नवम्बर 2018 को साझा की गई है......... https://mannkepaankhi.blogspot.com/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार यशोदा जी मेरी रचना को स्थान देने के लिए
Deleteवाह! जीवन के सार्वभौमिक सत्य का उद्घाटन! बधाई और आभार!!!
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आदरणीय
Deleteशाश्वत सत्य उद्घाटित करती सुंदर आध्यात्मिक रचना ।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार सखी
Deleteसार्वभौमिक सत्य का उद्घाटन करती रचना
ReplyDeleteधन्यवाद सखी
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