Sunday, June 2, 2019

यही ख़राबी थी मुझमें

हर समय खुद को भूला 
औरों के लिए जीती रही
अपनी खुशियों को छोड़ 
सबकी खुशियाँ चुनती रही
न दिन देखा न रात देखी 
खड़ी रही सबके लिए
डॉक्टर बनी,नर्स बनी
सारे घर की नौकरानी बनी
शिक्षिका बन बच्चों को 
जीवन का पाठ पढ़ाया
पति की प्रेयसी बन
जीवनसंगिनी का धर्म निभाया
फिर भी नहीं थी 
मैं किसी के काम की
नज़रों में सबके थी
ज़िंदगी मेरी आराम की
मेरे काम की करें अनदेखी
फिर भी मैं करती 
उन सबके मन की
बस यही ख़राबी थी 
शायद मुझमें
सोचा नहीं मैंने 
कभी अपने लिए
ज़रूरतें पूरी हुई 
सब निकल पड़े अपने रस्ते
आज़ अकेले होकर जाना मैंने
मतलब के थे सारे रिश्ते
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

10 comments:

  1. सुंदर, यही कर्म यही धर्म है

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    1. हार्दिक आभार भारती जी

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  2. सुन्दर सत्य दर्शाती रचना

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  3. प्राचीन समय से लड़कियों को यही समझाया जाता है।सुन्दर रचना

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    1. आपका बहुत बहुत धन्यवाद दी

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  4. अनुराधा दी,नारी का त्याग और उसके मन की व्यथा को बहुत ही सुंदर तरीके से व्यक्त किया हैं आपने।

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    1. सहृदय आभार ज्योति बहन

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