हर समय खुद को भूला
औरों के लिए जीती रही
अपनी खुशियों को छोड़
सबकी खुशियाँ चुनती रही
न दिन देखा न रात देखी
खड़ी रही सबके लिए
डॉक्टर बनी,नर्स बनी
सारे घर की नौकरानी बनी
शिक्षिका बन बच्चों को
जीवन का पाठ पढ़ाया
पति की प्रेयसी बन
जीवनसंगिनी का धर्म निभाया
फिर भी नहीं थी
मैं किसी के काम की
नज़रों में सबके थी
ज़िंदगी मेरी आराम की
मेरे काम की करें अनदेखी
फिर भी मैं करती
उन सबके मन की
बस यही ख़राबी थी
शायद मुझमें
सोचा नहीं मैंने
कभी अपने लिए
ज़रूरतें पूरी हुई
सब निकल पड़े अपने रस्ते
आज़ अकेले होकर जाना मैंने
मतलब के थे सारे रिश्ते
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार
सुंदर, यही कर्म यही धर्म है
ReplyDeleteहार्दिक आभार भारती जी
Deleteसुन्दर सत्य दर्शाती रचना
ReplyDeleteसहृदय आभार ऋतु जी
Deleteसुंदर रचना
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीय
Deleteप्राचीन समय से लड़कियों को यही समझाया जाता है।सुन्दर रचना
ReplyDeleteआपका बहुत बहुत धन्यवाद दी
Deleteअनुराधा दी,नारी का त्याग और उसके मन की व्यथा को बहुत ही सुंदर तरीके से व्यक्त किया हैं आपने।
ReplyDeleteसहृदय आभार ज्योति बहन
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