Tuesday, June 25, 2019

दो किनारे से हम

तुम नदिया की बहती धारा सी
और मैं ठहरे किनारे-सा
मिलकर भी कभी मिल न सकें
फिर भी सदा संग-संग चलें

तुम चंचल पुरवाई पवन
मैं तरुवर-सा अडिग खड़ा
महसूस प्रीत के अहसास मुझे
फिर भी खड़ा हूँ सूने तट-सा

नाज़ुक कली-सी कोमल हो
मैं फिरता आवारा भँवरे-सा
मन की भाषा समझ सकूँ ना
उड़ता फिरूँ नादान परिंदे-सा

धरती गगन-सा यह मेल रहे
मिलकर भी मन से मिल न सकें
नदिया के किनारों की तरह
विचारों पर अपने अड़े खड़े
***अनुराधा चौहान***

8 comments:

  1. तुम चंचल पुरवाई पवन
    मैं तरुवर-सा अडिग खड़ा
    महसूस प्रीत के अहसास मुझे
    फिर भी खड़ा हूँ सूने तट-सा

    नाज़ुक कली-सी कोमल हो
    मैं फिरता आवारा भँवरे-सा
    मन की भाषा समझ सकूँ ना
    उड़ता फिरूँ नादान परिंदे-सा
    अंतर्मन को छूती बहुत ही सुन्दर रचना सखी
    सादर

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  2. वाह ! बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति अनुराधा जी ! बहुत खूब !

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  3. वाह क्या बात है.छटपटाहट और प्रेम की बहुत सुंदर अभिव्यक्ति अनुराधा जी

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    1. सहृदय आभार सुधा जी

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  4. वाह बहुत सुंदर रचना मन में उतरती सी।
    सरस और सुघड़।

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