तुम नदिया की बहती धारा सी
और मैं ठहरे किनारे-सा
मिलकर भी कभी मिल न सकें
फिर भी सदा संग-संग चलें
तुम चंचल पुरवाई पवन
मैं तरुवर-सा अडिग खड़ा
महसूस प्रीत के अहसास मुझे
फिर भी खड़ा हूँ सूने तट-सा
नाज़ुक कली-सी कोमल हो
मैं फिरता आवारा भँवरे-सा
मन की भाषा समझ सकूँ ना
उड़ता फिरूँ नादान परिंदे-सा
धरती गगन-सा यह मेल रहे
मिलकर भी मन से मिल न सकें
नदिया के किनारों की तरह
विचारों पर अपने अड़े खड़े
***अनुराधा चौहान***
तुम चंचल पुरवाई पवन
ReplyDeleteमैं तरुवर-सा अडिग खड़ा
महसूस प्रीत के अहसास मुझे
फिर भी खड़ा हूँ सूने तट-सा
नाज़ुक कली-सी कोमल हो
मैं फिरता आवारा भँवरे-सा
मन की भाषा समझ सकूँ ना
उड़ता फिरूँ नादान परिंदे-सा
अंतर्मन को छूती बहुत ही सुन्दर रचना सखी
सादर
सस्नेह आभार सखी
Deleteवाह ! बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति अनुराधा जी ! बहुत खूब !
ReplyDeleteधन्यवाद साधना जी
Deleteवाह क्या बात है.छटपटाहट और प्रेम की बहुत सुंदर अभिव्यक्ति अनुराधा जी
ReplyDeleteसहृदय आभार सुधा जी
Deleteवाह बहुत सुंदर रचना मन में उतरती सी।
ReplyDeleteसरस और सुघड़।
सहृदय आभार सखी
Delete